समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह यादव की जेबी पार्टी है। राष्ट्रीय जनता दल लालू यादव की जेब में है, तो जनता दल (यू) नीतीश कुमार की जेब में रहती है। हरियाणा का इंडियन नेशनल लोकदल ओमप्रकाश चैटाला का जेबी दल है। वह इस समय जेल में है और उनके बेटे अभय चैटाला ने अपने पिता ओमप्रकाश चैटाला की जेब संभाल रखी है। कनार्टक का जनता दल (एस) पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा की जेबी पार्टी है।
जेबी पार्टियों के इन नेताओं में नीतीश कुमार ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जो बिना किसी पद पर रहते हुए अपने दल का अपनी जेब में रखने की क्षमता रखते हैं, अन्यथा अन्य सभी को तो पार्टी को कब्जे में रखने के लिए पद पर रहने की जरूरत पड़ती है। और ये पार्टियां आपस में मिलकर एक नई पार्टी बन पाएंगी या नहीं, यह बहुत हद तक नीतीश कुमार पर निर्भर करता है, क्योंकि एकीकृत जनता दल में उनकी स्थिति ही सबसे ज्यादा खराब होने की आशंका है।
इसका कारण यह है कि बिहार से दो दल जनता दल में मिलकर एकीकृत होने की बात कर रहे हैं। एक दल तो खुद नीतीश का है और दूसरा दल लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल है। एकीकृत पार्टी में इन दोनों में से किसे ज्यादा महत्व मिलता है, यह इसके नेता मुलायम सिंह यादव पर निर्भर करता है और मुलायम सिंह यादव किसे ज्यादा महत्व देंगे, इसका अनुमान लगाने के लिए राजनैतिक विशेषज्ञता की जरूरत नहीं।
लालू यादव का कद नीतीश कुमार से बड़ा है। बिहार में उनके दल के पास नीतीश के दल से बड़ा जनाधार है। इसका प्रदर्शन लालू पिछले लोकसभा चुनाव में भी कर चुके हैं। भले उनकी पत्नी और बेटी चुनाव हार गई हों, लेकिन उनके दल के 4 सांसद लोकसभा में चुनकर आए हैं। उनके समर्थन से कांग्रेस ने दो सीटें जीती हैं, तो नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी ने एक। यानी लालू के 7 उम्मीदवार पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार से जीते, जबकि नीतीश कुमार के मात्र दो ही उम्मीदवार चुनाव जीत सके। जातीय दृष्टिकोण से भी लालू नीतीश पर भारी हैं। उनकी जाति बिहार की सबसे बड़ी आबादी वाली जाति है, जो पूरी आबादी के 12 प्रतिशत से भी ज्यादा है, जबकि नीतीश की जाति की कुल संख्या 2 कुल आबादी की दो फीसदी ही है।
इसके अलावा लालू यादव की मुलायम सिंह यादव के साथ रिश्तेदारी भी होने जा रही है। उनकी बेटी की शादी मुलायम सिंह के बड़े भाई के पोते से होने वाली है। जाहिर है, इसके कारण भी लालू नीतीश पर भारी पड़ेंगे।
सिर्फ एक मामले में नीतीश लालू के ऊपर भारी पड़ते हैं और वह है लालू का सजायाफ्ता होना। सजा पाने के कारण लालू चुनाव नहीं लड़ सकते, इसलिए वे बिहार में फिर से मुख्यमंत्री बनने की दौड़ से बाहर हैं, जबकि नीतीश कुमार न केवल मुख्यमंत्री बनने की पात्रता रखते हैं, बल्कि उन्होंने खुद घोषणा भी कर रखी है कि अगले विधानसभा चुनाव में वे लोगों से अपने मुख्यमंत्री बनने का जनादेश मांगेंगे। इस तरह की लगभग घोषणा नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाते समय की थी। मुख्यमंत्री मांझी भी इस तरह की घोषणा लगातार कर रहे हैं कि वे ज्यादा से ज्यादा आगामी विधानसभा चुनाव तक ही प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उसके बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री का पद संभाल लेंगे।
इसका मतलब है कि नीतीश कुमार अपने जनता दल (यू) का विलय एकीकृत पार्टी में तभी कर पाएंगे, जब दल उन्हे बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के लिए तैयार हो जाए। मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्श नही उनके लिए काफी नहीं होगा, बल्कि वे चाहेंगे कि बिहार में दल की कमान भी उनके ही हाथ में हो, भले वे दल में किसी पद पर रहें या न रहें।
दल में अपने पूर्ण वर्चस्व को लेकर नीतीश कुमार कितने संवेदनशील हुआ करते हैं, इसका उदाहरण वे बिहार विधानसभा के 2000 लोकसभा चुनाव के पहले पेश कर चुके हैं। जनता दल से अलग होकर 1994 में समता पार्टी बनाई थी। उस पार्टी का उन्होंने जनता दल (यू) में 1999 में विलय कर दिया था। सच कहा जाय, तो जनता दल(यू) का गठन ही समता पार्टी और जनता दल के भाजपा समर्थक एक धड़े के साथ विलय के बाद हुआ था। उस समय उस धड़ा का नेतृत्व शरद यादव कर रहे थे। 1999 का लोकसभा चुनाव नीतीश ने जनता दल (यू) के टिकट से ही लड़ा था।
1999 के लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए 2000 के आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा- जद(यू) गठजोड़ की जीत निश्चित थी, लेकिन नीतीश कुमार जद(यू) के टिकट वितरण पर पूर्ण नियंत्रण चाहते थे और टिकट बांटने का अंतिम अधिकार शरद यादव के पास था। शरद यादव ने जनता दल(यू) में यादवों को भरना शुरू कर दिया था और नीतीश को लगा कि वे तो सारे टिकट यादवों को ही दे डालेंगे। इस डर से उन्होंने अपनी समता पार्टी को फिर से जिंदा कर दिया और जद(यू) से ही अलग हो गए। उनकी समता पार्टी का जनता दल(यू) में दुबारा विलय 2004 में हुआ और वह भी तब जब जनता दल(यू) की कमांड जार्ज फर्नांडिज के नेतृत्व में आया। हालांकि बाद में उन्होंने जार्ज की जगह शरद यादव को ही दुबार पार्टी अध्यक्ष बनवा दिया, लेकिन तबतक मुख्यमंत्री बनकर नीतीश कुमार काफी मजबूत हो चुके थे और शरद यादव काफी कमजोर हो चुके थे।
नीतीश कुमार के वह राजनैतिक अतीत एकीकृत जनता दल के निर्माण पर ही शंका पैदा कर देता हैं, क्योंकि वे किसी ऐसे दल का आगे भी हिस्सा नहीं होना चाहेंगे? जिसकी बिहार ईकाई में उनकी तूती नहीं बोलती हो। सवाल उठता है कि लालू क्या नीतीश के एकछत्र वर्चस्व को स्वीकार कर पाएंगे? बड़े जनाधार और नीतीश से बहुत ऊंचा राजनैतिक कद के बावजूद लालू यादव सजा पाने के बाद कमजोर हो चुके हैंए इसलिए शायद वह अपने परिवार के हितों की रक्षा करते हुए नीतीश के सामने समर्पण भी करना चाहें, पर पप्पू यादव का बिहार के एक बड़े नेता के रूप में हो रहा उभार शायद लालू को वैसा करने की इजाजत नहीं देगा। यदि उन्होंने बिहार में नीतीश के वर्चस्व को स्वीकार कर लिया, तो खतरा यह है कि उनका यादव जनाधार पप्पू यादव की ओर खिसक जाएगा। लेकिन यदि नीतीश के वर्चस्व को नहीं स्वीकार किया गया, तो वे अपने दल का विलय एकीकृत दल में होने ही नहीं देंगे। (संवाद)
भारत
जनता दल का एकीकरण
क्या करेंगे नीतीश कुमार?
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-12-10 11:34
जनता दल की टूट से बनी पार्टियां एक बार फिर आपस में मिलकर एक बड़ी पार्टी बनने की दिशा में बढ़ रही हैं। यदि एकीकृत होकर यह पार्टियां एक दल में तब्दील हो जाती हैं, तो निश्चय ही देश के लोकतंत्र के लिए यह अच्छा होगा। इस एकीकरण के कारण जेबी पार्टियों की संख्या कुछ घटेगी और अपनी अपनी जेब में एक एक पार्टी रखकर चलने वाले नेताओं में कमी हो जाएगी। कहने की जरूरत नहीं कि जो पार्टियां आपस में मिलकर एक होने की बात कर रही हैं, वे सभी जेबी पार्टियां ही हैं।