लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए, तो पाया गया कि भारतीय जनता पार्टी का कमल बहुमत के लिए जरूरी 41 सीटों पर भी नहीं खिला। अपने एक सहयोगी दल के विजयी उम्मीदवारों की सहायता से भाजपा बहुमत की सरकार बनाने में तो कामयाब हो ही रही है और शायद कुछ अन्य विधायकों को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेगी और उसकी सरकार का बहुमत और भी बढ़ जाएगा, लेकिन वहां मिली मामूली जीत उसके लिए आने वाले दिनों के लिए खतरे की घंटी साबित हो सकती है।
इसका कारण यह है कि भाजपा को वास्तव में जितनी बड़ी जीत दर्ज करनी चाहिए थी, उतनी बड़ी जीत उसे हासिल नहीं हुई है। शायद यही कारण है कि नीतीश कुमार ने कहा है कि झारखंड में भाजपा की हार हुई है, क्योंकि नीतीश को भी लग रहा होगा कि भाजपा को वहां एक बड़ी जीत मिलनी चाहिए थी।
सवाल उठता है कि भारतीय जनता पार्टी एक बड़ी जीत से वंचित कैसे हो गई, जबकि प्रधानमंत्री मोदी की सभाओं की भीड़ उनके द्वारा लोकसभा चुनावों के दौरान संबोधित की गई भीड़ से भी बड़ी हुआ करती थी? मतदान भी बहुत ज्यादा हुआ था। सच कहा जाय, तो अब तक के मतदान के रिकार्ड वहां टूट गए थे। रिकार्ड मतदान को मादी लहर का नतीजा माना जा रहा था, पर भाजपा और उसके सहयोगी दलों को मिले मत कुल पड़े मतों का 35 फीसदी ही थे, जबकि लोकसभा चुनाव में उसे 42 फीसदी मत मिले थे।
दरअसल भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन की गलत नीति अपनाकर अपना नुकसान कर लिया। उसने 9 सीटें अपने सहयोगी दलों को दे दिए। इसके कारण भाजपा के अपने उम्मीदवारों की संख्या कम हो गई और पार्टी के कार्यकत्र्ताओं के अंदर का असंतोष भी बढ़ गया। ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने से समाज के ज्यादा वर्गाे के लोगों को टिकट दिया जा सकता है। भारतीय जनता पार्टी ने 9 सीटें दूसरों के लिए छोड़कर यह मौका भी सीमित कर दिया।
गठबंधन का नुकसान पार्टी को एक और तरह से हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वंशवाद और परिवारवाद को अपने भाषण का एक मुख्य मुद्दा बनाते हैं। झारखंड में भी वे बाप- बेटे का मुद्दा उठाकर शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन का वे मजाक उड़ा रहे थे, लेकिन उनकी सहयोगी पार्टी आल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष सुदेश महतो ने अपने हिस्से की सभी सामान्य सीटों पर अपने रिश्तेदारों को ही टिकट दे डाले थे। इसके कारण प्रधानमंत्री द्वारा बाप बेटे पर किया गया हमला कमजोर हो गया।
कहते हैं कि चुनाव प्रभारी भूपेन्द्र यादव के कारण भी झारखंड में भाजपा केा अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। वे स्थानीय नेताओं के साथ तालमेल बैठाने में विफल रहे और उनका व्यवहार भी वहां के नेताओं के साथ अच्छा नहीं था। उनके कारण भाजपा नेताओं में गुटबंदी बढी और एक गुट ने दूसरे गुट के उम्मीदवारों को हराने का काम किया।
झारखंड का जाति समीकरण भी भाजपा के अनुकूल था। वहां की सबसे अधिक आबादी वाली जाति नरेन्द्र मोदी की तेली जाति ही है। जाति जनगणना के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं, लेकिन एक अनुमान के अनुसार छत्तीसगढ़ की तरह झारखंड में भी तेली कुल आबादी के 20 फीसदी से भी ज्यादा हैं। प्रधानमंत्री की सभा में लोकसभा की अपेक्षा ज्यादा भीड़ जुटने का एक कारण यह भी था कि उनकी जाति के आमतौर पर अराजनैतिक रहने वाले लोग भी उन्हें देखने के लिए सभाओं में आ रहे थे। झारखंड में रिकार्ड मतदान का एक कारण उस जाति के अराजनैतिक रहे लोगों द्वारा भारी संख्या में मतदान केन्द्र पर आना रहा होगा।
इसके बावजूद भाजपा की यह मामूली जीत, जिसे शायद जीत कहना भी उचित नहीं होगा, भाजपा के रणनीतिकारों के लिए चिंता का कारण होना चाहिए। उसे पड़ोसी बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव का सामना करना है। उसके विरोधी एकताबद्ध हो रहे हैं। यदि लालू और नीतीश एक दल में आ नहीं भी पाएं, तो उनके गठबंधन की पूरी संभावना है। कांग्रेस भी उनके साथ है और हो सकता है कुछ अन्य पार्टियां भी उनके साथ आ जाए। झारखंड मे भाजपा विभाजित विपक्ष का सामना कर रही थी, लेकिन बिहार में उसे एकताबद्ध विपक्ष का सामना करना पड़ सकता है। जाहिर है पिछले लोकसभा चुनाव में मिले उसके गठबंधन का 39 फीसदी वोट उसे सफलता दिलाने में कामयाब नहीं होगा।
अपना वोट फीसदी बढ़ाने के लिए भाजपा को वहां के ज्यादा से ज्यादा सामाजिक वर्गों को अपनी ओर आकर्षित करना होगा और टिकट वितरण में ज्यादा से ज्यादा वर्गों के लोगों को उपकृत करना होगा। यह वह तभी कर पाएगी, जब वह सभी सीटों से चुनाव लड़े और इसके लिए उसे बिहार में गठबंधन को नमस्कार करना पड़ेगा।
भाजपा के साथ बिहार में रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टियों का गठबंधन है। ये दोनों नेता बिहार के मुख्यमंत्री पद पाने का भी ख्वाब देखते हैं। रामविलास का सितारा तो पूरी तरह से गर्दिश में है और वे नरेन्द्र मोदी के कारण ही चुनाव जीत पाए हैं। उनकी सबसे बड़ी कमजोरी वह वंशवाद है, जिसके खिलाफ बोलना मोदीजी का प्रिय शगल है। अब आप रामविलास पासवान को अपने साथ रखकर परिवारवाद के खिलाफ वोट देने की अपील तो जनता से नहीं कर सकते? इस तरह की अपील का उलटा असर मतदाताओं पर पड़ता है, जिसकी बानगी हम झारखंड में देख चुके हैं। इसलिए रामविलास की पार्टी से गठबंधन भाजपा के वोट प्रतिशत को घटा ही देगा। नीतीश कुमार की महादलित राजनीति ने वैसे भी रामविलास को सिर्फ अपनी जाति का नेता बना डाला है और उस जाति के युवा भी उनके वंशवाद के कारण उनसे कट रहे हैं। यदि झारखंड चुनाव के मिले संदेश को पढने और समझने में भाजपा विफल रही, तो बिहार मे जीत का उसका सपना सपनी ही रह जाएगा। (संवाद)
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झारखंड में भाजपा की हारी हुई जीत
बिहार के लिए इससे सबक ले सकते हैं अमित शाह
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-12-24 13:01
झारखंड में भाजपा की सरकार बन रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में हुई भारी जीत और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभाओं में उमड़ रही भारी भीड़ को देखते हुए कोई भी कह सकता था कि बिहार से अलग होकर बने उस राज्य में हवा का रुख क्या है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को लग रहा था कि उनकी पार्टी को दो तिहाई बहुमत हासिल हो जाएगा। लोकसभा चुनाव में पार्टी के उम्मीदवारों को 81 में से 58 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी। इसलिए उनके उस दावे का मजबूत आधार भी था।