बुधवार, 18 अक्तूबर, 2006
राजनीतिज्ञों के निशाने पर न्यायपालिका क्यों
आप खेल खेलते हैं और खेल के नियम बनाते हैं - सर्वोच्च न्यायालय
ज्ञान पाठक
भारत वैश्वीकरण की नीति पर चल रहा है। हमारे नेता बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ रहे हैं। विधायिका और कार्यपालिका को चलाने वाले ये जन प्रतिनिधि जिस दिशा में बढ़ रहे हैं और जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं उतनी तेजी से बेचारी न्यायपालिका नहीं चल पा रही है। अनेक बार नेताओं के बनाये कानूनों और उनके कार्यान्वयनों को न्यायपालिका गलत ठहरा देती है और हमारे नेता उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते। उदारीकरण के इन अगुवे नेताओं का चरित्र दिनोंदिन कट्टर होता जा रहा है तथा वे मनमानी न कर पाने पर खीझकर राजनीतिक बयान देने लगते हैं कि न्यायपालिका कार्यपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्रों का अतिक्रमण कर रही है।
आरक्षण के विवादास्पद मुद्दे पर भी ऐसा ही हुआ है। वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च न्यायालय ने किसी भी तरह से विधायिका में हस्तक्षेप करने या उसके अधिकारों का अतिक्रमण नहीं किया है, लेकिन राजनीतिक लाभ उठाने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने उसकी आलोचना करते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय विधायिका के कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण किया है।
यह निर्विवाद है कि आरक्षण का मुद्दा सामाजिक न्याय का कम और राजनीतिक ज्यादा हो गया है। यही कारण है कि अधिकांश राजनीतिक पार्टियों के लिए यह प्रतिस्पर्धा का विषय है। विवाद उठाने वाले वे लोग हैं जो समझते हैं कि इस नीति से उनको नुकसान होगा, और उसका समर्थन करने वाले लोग वे हैं जो समझते हैं कि उन्हें फायदा है। काफी कम लोग ऐसे हैं जो आरक्षण की नीति का विरोध या समर्थन न्यायपूर्ण सिद्धांतों के आधार पर कर रहे हैं। ऐसे लोग बेहतर और ज्यादा न्यायपूर्ण नीति लाने की बात करते हैं, लेकिन उनकी कौन सुने।
अन्य सरकारों की तरह ही केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली वर्तमान संप्रग सरकार ने भी किसी की नहीं सुनी और बिना समुचित तैयारी के ही देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों को सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर 27 प्रति शत आरक्षण देने के अपने निर्णय की घोषणा कर दी। गत मई महीने से इसपर भारी विवाद चल रहा है और इस वर्ष इस नीति के लागू किये जाने की कोई संभावना भी नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय को भी इस बात पर कड़ी आपत्ति है कि सरकार का प्रस्ताव आरक्षण की नीति को विस्तार देने का तो है लेकिन उसके पास पूरी तैयारी नहीं है। यहां तक कि सरकार के पास आंकड़े भी तैयार नहीं हैं, यह बताने के लिए कि आज किस जाति के लोगों में कितना सामाजिक और आर्थिक पिछड़ापन है और किसे कितने आरक्षण की आवश्यकता है। सभी पिछड़ी जातियों को एक ग्रुप मानकर आरक्षण दिया जा रहा है जिसका लाभ उन्हीं को मिल रहा है जो पिछड़ी जातियों में भी सामाजिक और शैक्षणिक रुप से आगे हैं और तुलनात्मक रुप से धनवान हैं। जो पिछड़ों में भी पिछड़े हैं उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
ऐसा हो इसलिए रहा है कि सरकार के पास पिछड़ी जातियों के पिछड़ेपन के आंकड़े भी नहीं हैं। पिछड़े वर्ग के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग का काम हमेशा ही बाधित रखा गया है और उसके पास साधनों और सदस्यों तक की भारी कमी रखी गयी है। पहले जिन पिछड़ी जातियों के परिवारों की आय 8333 रुपये प्रति माह से ज्यादा थी उन्हें आरक्षण नहीं देने का प्रावधान था लेकिन अब 20833 रुपये प्रति माह की आय वाले पिछड़ी जातियों के परिवारों को भी आरक्षण देने की व्यवस्था है। यह एक विडंबना है कि आज आरक्षण का लाभ शून्य से 8333 रुपये प्रति माह की आय वाले पिछड़ी जाति के परिवारों के मुकाबले 8333 से 20833 रुपये प्रति माह वाले परिवारों को मिल रहा है।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को फटकारा कि आरक्षण के नये प्रस्ताव के लिए जरुरी आंकड़े क्यों तैयार नहीं हैं, तो हमारे नेतृत्व की फजीहत स्वाभाविक थी। राजनीतिक खेल खेलने वालों के लिए अदालत की फटकार असह्य थी ही। लेकिन उन्होंने विधायिका को ढाल बनाकर न्यायपालिका की आलोचना ज्यादा बेहतर समझा ताकि वे अपने को देश का असली हमदर्द भी बता सकें। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय ने संसद के अधिकारों का अतिक्रमण किया है।
राजनीतिक लाभ के लिए सर्वोच्च न्यायालय की मिथ्या आलोचना करने या उसे नीचा दिखाने वालों की बातों पर न जाकर जनता को यह जानना चाहिए कि आखिर अदालत में हुआ क्या था।
सरकार ने एक हलफनामे में अदालत को बताया था कि आरक्षण के नये प्रस्ताव पर एक विधेयक संसद में अगस्त महीने में पेश भी किया जा चुका है और उसके सभी पहलुओं पर एक प्रवर समिति विचारण भी कर रही है। सरकार ने कहा कि वह आरक्षण के नये प्रस्ताव को लागू करेगी लेकिन संसद द्वारा उसे पारित किये जाने के बाद ही।
अदालत ने सरकार के प्रतिनिधि अतिरिक्त महाधिवक्ता गोपाल सुब्रह्मण्यम से पूछा, “आप बार-बार बोलते चले जा रहे हैं कि आरक्षण कोटे की नीति लागू करेंगे। क्या ऐसी घोषणा करने के पहले सभी तथ्य व आंकड़े एकत्रित कर लिए गये थे?” जब सरकार के प्रतिनिधि ने कहा नहीं, तो न्यायपीठ ने टिप्पणी की : “आप सभी आंकड़े जुटाये बिना ही नीति की घोषणा करते हैं। आप खेल खेलते हैं और खेल के नियम बनाते हैं। अब आप कह रहे हैं कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण कोटे अदलाबदली के योग्य (इंटरचेंजेबल) हैं। किस आधार पर आप ऐसा कह रहे हैं? फिर क्रीमी लेयर के बारे में आपने कुछ नहीं कहा।”
अतिरिक्त महाधिवक्ता ने कहा कि सरकार आंकड़े जुटा रही है। संसद में प्रवर समिति की रपट आनी है। रपट 27 नवंबर से शुरु होने वाले संसद के शरदकालीन सत्र में समर्पित किये जाने की संभावना है।
काफी विचार विमर्श के बाद अदालत ने अपना फैसला लिखवाया : “हम संसद से अनुरोध करते हैं कि वह विधेयक पर कोई अंतिम निर्णय तब तक न ले जब तक कि वे (अदालत) इस मामले में जांच (निर्णय) न कर लें।” लेकिन अतिरिक्त महाधिवक्ता के अनुरोध पर यह फैसला भी काटकर हटा दिया गया और फैसला दिया कि वह संसदीय समिति की रपट अदालत को दे। अगली तिथि भी 4 दिसंबर निर्धारित की गयी है अर्थात शरदकालीन सत्र के एक सप्ताह गुजर जाने के बाद।
वैसे चार दिसंबर को ही अदालत के सामने रपट का सवाल आयेगा। साफ है कि न्यायाधीशों ने कोई अतिक्रमण नहीं किया, और यहां तक कि संसद का उसने पूरा सम्मान रखा। आश्चर्य तो यह कि कांग्रेस से ज्यादा उसकी सहयोगी वाम पार्टियां और विरोधी भाजपा के नेता सर्वोच्च न्यायालय की मिथ्या आलोचना कर रहे हैं। आखिर इसका राज क्या है? #
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राजनीतिज्ञों के निशाने पर ...
System Administrator - 2007-10-20 05:52
भारत वैश्वीकरण की नीति पर चल रहा है। हमारे नेता बड़े उत्साह के साथ आगे बढ़ रहे हैं। विधायिका और कार्यपालिका को चलाने वाले ये जन प्रतिनिधि जिस दिशा में बढ़ रहे हैं और जितनी तेजी से बढ़ रहे हैं उतनी तेजी से बेचारी न्यायपालिका नहीं चल पा रही है।