पूर्वाेत्तर राज्यों की यह एक विशेषता रही है कि जब कभी भी किसी संगठन का मुख्य धड़ा सरकार के साथ शांति वार्ता करता है और समझौता हो भी जाता है, तो एकाएक एक नया धड़ा खड़ा हो जाता है, जो उस समझौते का विरोध करने लगता है। उसके कारण उग्रवाद एक बार फिर जिंदा होने लगता है। उनके कमजोर होने के बावजूद शांति को खतरा पैदा हो जाता है। 1975 में नगा नेशनल काउंसिल ने सरकार के साथ शांति का समझौता किया। उस समय उसके नेता थे ए जेड फिजो। उस समझौते में कहा गया था कि छिपाए गए हथियार बाहर लाए जाएंगे और उन्हें उचित जगहों पर जमा कर दिए जाएंगे।

उस समय नगा विद्रोहियों का नेतृत्व अनगामी जनजाति के हाथ में था। फिजो भी अनगामी ही थे। अनगामी नेताओं ने तो उस समझौते को मान लिया, लेकिन गैर अनगामी नेताओं ने उस समझौते को मानने से इनकार कर दिया। समझौते के 5 साल के बाद नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालैंड की स्थापना हुई। उसका नेतृत्व कर रहे थे नगा विद्रोही नेता चिसी स्वू और थुंगेलंग मुवैया। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आॅफ नगालैंड में 1988 में एक भयानक और खूनी विभाजन हुआ। हेमी जनजाति के नगा खापलंग ने एक अन्य संगठन खड़ा कर दिया। बाद में दोनों गुटों ने सरकार के साथ अलग अलग समझौते पर दस्तखत किए। दोनों गुट अपने अपने कैंपों में विश्राम कर रहे हैं और अब नगालैंड में शांति स्थापित हो गई है।

पूर्वात्तर का सबसे ज्यादा खूंखार संगठन था यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आॅफ असम। 2009 में उल्फा के चेयरमैन अरबिंद राजखोवा को बांग्लादेश प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया। उसके साथ कुछ अन्य बड़े उल्फा नेता भी गिरफ्तार किए गए। बांग्लादेश सरकार ने उन सबको भारत के सुपुर्द कर दिया। वे सब भारत के जेलों में आ गए और वहीं से वे भारत सरकार के अधिकारियों के साथ बातचीत करने लगे ताकि असम समस्या का शांतिपूर्ण हल निकाला जा सके। उल्फा नेताओं में सिर्फ परेश बरुआ ही एकमात्र ऐसा नेता है, जो अभी भी गिरफ्तार नहीं किया जा सका है। वह चीन-म्यान्मार सीमा से जुड़े क्षेत्र में रहता है और वहीं से कभी कभी असम में हिंसक वारदातों को अंजाम देता रहता है। लेकिन उसकी ताकत बहुत कम हो गई है।

जिस तरह परेश बरुआ उल्फा के मुख्य धड़े के साथ शांतिवार्ता में शामिल नहीं हुआ, उसी तरह संगबिजित भी बोडों फ्रंट के मुख्य धड़े से अलग रह गया। वह बोडोलैंड परिषद एरिया के लोगों पर हमला करता रहता है। पहले भी बोडों उग्रवादियों ने 1996 में संथालों पर हमले किए थे। 2012 में उन्होंने बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों को अपने हमले का शिकार बनाया। उसके बाद पिछले महीने में उन लोगों ने एक बार फिर संथालों को ही निशाना बनाया है। इन हमलों का भी कारण है। बोडो परिषद क्षेत्र में बोडो जनजाति के लोग अल्पसंख्यक हो गए हैं। जिस समय उन्होंने इस परिषद के गठन के लिए सरकार को बाध्य किया था, उस समय भी वे अल्पसंख्यक ही थे। उन्होंने परिषद के लिए और भी अधिकार की मांग की। परिषद को अधिकार मिले भी, लेकिन उनकी समस्या यह है कि परिषद क्षेत्र की कुल आबादी के वे सिर्फ 27 फीसदी ही हैं।

यही कारण है कि परिषद को ज्यादा अधिकार दिलाने के बावजूद वे संतुष्ट नहीं हैं। इसलिए उनकी कोशिश रहती है कि गैर बोडो लोगों को वहां से भगा दिया जाय। इसके लिए वे गैर बोडो समुदायों पर बारी बारी से हमला करते रहते हैं। अब गैर बोडो लोग आपस में एकजुट हो गए हैं। उन्होंने कोकराझार लोकसभा सीट पर नब कुमार सरानिया का मिलजुलकर समर्थन किया और सरानिया की भारी मतों से जीत हुई। बोडो प्रत्याशी की शर्मनाक हार ने बोडो उग्रवादियों को तिलमिला दिया। यह हमला उसी तिलमिलाहट का परिणाम है। (संवाद)