पिछले लोकसभा चुनाव में भी उन्हें चांदनी चैक से कपिल सिबल के खिलाफ भाजपा उम्मीदवार के रूप में खड़ा किए जाने की चर्चा दिल्ली के राजनैतिक गलियारों में चल रही थी, लेकिन वे उस समय भी राजनीति में नहीं आईं। जिस तरह से बाहर के लोगों को अपनी पार्टी में लाकर भाजपा टिकट दे रही थी, उसे देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि उन्हें भी टिकट का आॅफर जरूर मिला होगा, लेकिन उन्होंने वह आॅफर ठुकरा दिया। शायद उन्हें भाजपा की जीत का भरोसा नहीं था। वे नरेन्द्र मोदी की विरोधी भी थीं और गोधरा बाद गुजरात दंगों के लिए उन्हें जिम्मेदार मानती थी। अदालत द्वारा मोदीजी को क्लीन चिट दिए जाने के बाद भी किरण बेदी उन्हें जिम्मेदार मानती थीं। शायद उसी कारण उन्होंने भाजपा की सदस्यता नहीं हासिल की और लोकसभा चुनाव लड़ने में दिलचस्पी नहीं दिखाई।
अब वे भाजपा में हैं और दिल्ली में भाजपा की मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी बनाई जा सकती है। सवाल उठता है कि उन्हें भाजपा अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार क्यों पेश करना चाहती हैं? लोकसभा चुनाव के बाद देश में 4 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए। उनमें से किसी में भी भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार चुनाव के पहले घोषित नहीं किया। चारों राज्यों में उसे पहले के चुनावों की अपेक्षा अच्छी सफलता मिली। हरियाणा में तो उसे बहुमत भी हासिल हो गया। महाराष्ट्र मे वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और सरकार का भी गठन कर लिया। उसने अल्पमत वाली सरकार बनाई और अब शिवसेना को उसमें शामिल कर उसे बहुमत की सरकार बना चुकी है। झारखंड में भाजपा को अपने बूते तो बहुमत नहीं मिला, पर अपने चुनाव पूर्व एक सहयोगी पार्टी के साथ उसे पूर्ण बहुमत मिल गया और वहां उसकी सरकार है। जम्मू और कश्मीर में भी भारतीय जनता पार्टी को भारी सफलता मिली। वह दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी और प्रदेश में सबसे ज्यादा मत उसे ही मिले। यदि भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के नेताओं ने मुस्लिम विरोधी बयानों और हरकतों से अपने आपको दूर रखा होता, तो भाजपा को वहां 5 से 10 सीटें और भी मिल सकती थीं।
जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी के नाम पर और उन्हीें को अपना चेहरा बनाकर भाजपा ने चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन दिल्ली में वह मोदी जी के चेहरे और नाम को आगे कर क्यों नहीं चुनाव लड़ना चाहती है? यह सवाल इसलिए भ महत्वपूर्ण है, क्योंकि दिल्ली भारतीय जनता पार्टी का गढ़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में इसकी सातों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार ही जीते थे। दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों मे से 60 सीटों पर भाजपा के उम्मीदवारो को अन्य किसी भी उम्मीदवार से ज्यादा मत मिले थे। 2013 में हुए विधानसभा चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और सबसे ज्यादा मत भी उसे ही मिले थे। यदि पार्टी को तीन या दो सीटें और मिल जातीं, तो फिर उनकी यहां भी सरकार बन जाती। अथवा बसपा को दो या तीन सीटें मिल जातीं, तो भाजपा उसके विधायकों को अपने पाले में लाकर सरकार बना लेती।
यानी दिल्ली में पिछले 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा सरकार बनाने की कगार पर पहुंच गई थी और लोकसभा चुनाव में तो उसने सारी सीटें जीत ली थी। उसके बाद भी उसे दिल्ली में किरण बेदी को मिलाना पड़ रहा है, तो इसका कारण यही हो सकता है कि वह जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है। वह नरेन्द्र मोदी बनाम केजरीवाल के तर्ज पर यह विधानसभा का चुनाव भी नहीं लड़ना चाहती है। इसके दो में से कोई एक कारण हो सकता है। पहला, भाजपा को हार का डर सता रहा है और उसे लगता है कि हार के कारण मोदी जी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंच सकती है। और वह उनकी प्रतिष्ठा को दांव पर नहीं लगाना चाहती। अब यदि हार होती है तो कहा जाएगा कि किरण बेदी को पार्टी में लाने से हार हुई और वह एक गलत निर्णय था। दूसरा कारण यह हो सकता है कि भाजपा दिल्ली को मोदी बनाम केजरीवाल के संघर्ष का अखाड़ा बनाकर केजरीवाल को प्रतिष्ठा नहीं देना चाहती है। पिछले लोकसभा चुनाव में केजरीवाल बनारस में मोदी के खिलाफ चुनाव ही अपने कद को मोदी जी के बराबर दिखाने के लिए लड़ रहे थे। अब यदि भाजपा नरेन्द्र मोदी को ही चेहरा बनाकर दिल्ली का चुनाव लड़ती है, तो इससे केजरीवाल का कद ही बढ़ता है, जो आने वाले समय में भाजपा के लिए परेशानी का सबब हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या किरण बेदी से पार्टी को फायदा होगा? जहां तक सुश्री बेदी की अपनी निजी छवि की बात है, तो दिल्ली मे मध्यवर्ग में उनकी छवि अच्छी है। वे पुलिस अधिकारी हुआ करती थीं। उनकी छवि एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की रही हैं, जो अपने कर्तव्य को निभाने में अपना-पराया और कमजोर- शक्तिशाली में भेदभाव नहीं करती। लोगों ने उन्हें अन्ना के आंदोलन में भी सक्रिय देखा है। भ्रष्टचार के खिलाफ उनसे कार्रवाई की उम्मीद दिल्ली की जनता कर सकती है। यह सब उनके पक्ष मे है, लेकिन उनके अक्खड़ स्वभाव के कारण भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेताओ के साथ उनका तालमेल क्या बैठ पाएगा- यह सवाल भी महत्वपूर्ण हैं। चुनावी जीत मे इस तालमेल का बहुत बड़ा योगदान होता है। इसमे कुछ लोगों को शक है और यही कारण है कि यह नहीं कहा जा सकता कि किरण बेदी के कारण भाजपा को लाभ होगा ही। (संवाद)
भारत
भाजपा में किरण बेदी: दिल्ली विधानसभा चुनाव हुआ दिलचस्प
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-01-17 11:22
किरण बेदी के भाजपा में शामिल होने से पार्टी को फायदा होगा या नहीं, इसे तो दावे के साथ अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसने दिल्ली विधानसभा के चुनाव को और भी दिलचस्प बना दिया है। सुश्री बेदी के भाजपा में शामिल होने को दल बदल की घटना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे पहले कभी किसी दल में रही ही नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन में वे जंरूर रही थीं, लेकिन जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो उन्होंने इसमें शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। पिछले विधानसभा चुनाव के पहले अरविंद केजरीवाल ने किरण बेदी को पार्टी में शामिल होने का न्यौता दिया था और दिल्ली के मुख्यमंत्री उम्मीदवार तक घोषित करने की बात कर दी थी। इसके बावजूद किरण बेदी राजनीति में नहीं आईं। उन्होंने आम आदमी पार्टी के समर्थन में एक वक्तव्य देने से भी इनकार कर दिया था।