यह सब सिर्फ जयंती नटराजन के कार्यकाल में ही नहीं हुआ, बल्कि उनके पहले जयराम रमेश के मंत्रित्वकाल में भी हुआ। यहां गौरतलब बात यह है कि जयंती नटराजन की तरह ही जयराम रमेश भी सोनिया गांधी परिवार के बहुत नजदीकी थे। रमेश ने पर्यावरण मंत्री की हैसियत से ही नहीं, बल्कि बाद में ग्रामीण विकास मंत्री की हैसियत से भी विकास परियोजनाओं को रोकने का काम किया। 2013 में तैयार किया गया भूमि अधिग्रहण विधेयक भी जयराम रमेश के दिमाग की ही उपज थी। इस कानून का उद्देश्य भी जमीन अधिग्रहण को अत्यंत कठिन बनाकर विकास योजनाओं को प्रतिबंधित करना ही है। इसके द्वारा पैदा की जा रही समस्या से निपटने के लिए मौजूदा केन्द्र सरकार को अध्यादेश का सहारा लेना पड़ रहा है।

सच कहा जाय तो खनन परियोजनाओं को रोकने के लिए राहुल, रमेश और जयंती ने एक तिकड़ी बना रखी थी। खनन परियोजनाओं पर इस तिकड़ी की खास नजर हुआ करती थी। कुछ उद्योगपतियों की परियोजनाएं तो पास हो जाती थीं, लेकिन कुछ की परियोजनाओं को पास होने नहीं दिया जाता था। इसके लिए बहुत किस्म के ताल तिकड़म किए जाते थे। राहुल गांधी भी इस तिकड़म में शामिल थे और इसका वे सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया करते थे। राहुल ने वेदांता की परियोजना को रोकने के लिए उड़ीसा का दौरा तक कर डाला था। वहां जाकर वे आदिवासियों के हितैषी बनने की ढोंग कर रहे थे। वेदांता का सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी रिलायंस था। जाहिर है यह मुकेश अंबानी का फायदा पहुंचाने के लिए किया जा रहा था। भारत सरकार के विनिवेश कार्यक्रम के सबसे बड़े लाभान्वित रिलायंस और वेदांता ही हो रहे थे। आइपीसीएल पर कब्जा रिलांयस ने किया, तो बाल्को को वेदांता ने खरीद लिया। आइपीसीएल पर कब्जे के बाद रिलायंस की महत्वाकांक्षा दुनिया का सबसे बड़ा हाइड्रोजन उत्पादन करने वाला उद्योगपति बनने की थी।

राहुल रमेश गठजोड़ द्वारा वेदांता पर किया जा रहा हमला देश के संसाधनों के साथ की जा रही सबसे गंदी राजनीति का एक प्रमाण था। यदि सैद्धांतिक रूप से बात करें, तो न तो राहुल और न ही रमेश इस बात को नकार सकते हैं कि देश के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल देश के विकास के लिए किया जाना चाहिए। इस विकास में वे लोग भी शामिल हों, जिनके इलाके में वे संशाधन मौजूद हैं। लेकिन उड़ीसा के कालाहांडी स्थित बाक्साइट के अयस्कों को विकास के लिए उपलब्ध कराने के प्रयासों पर राहुल और रमेश की जोड़ी ने कुडली मार दी थी। यह किसी और को फायदा पहुंचाने के लिए कर रहे होंगे। वे कौन थे, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।

दुनिया भर में खनिज संपदा उन्हीें इलाकों में हैं, जो दूर दराज क्षेत्रो में हैं और जहां पहुंचना आसान नहीं रहा है। उन सभी इलाको में वहां के आदिवासी रहते हैं, तो गरीब और अशिक्षित भी होते हैं। उनके हितों का ध्यान रखते हुए वहां की खनिज संपदा का दोहन होता है। दुनिया भर में यही हो रहा है। भारत इसका अपवाद नहीं हो सकता। चीन सहित लगभग सभी देशों ने खनिज संपदा का दोहन कर वहां के लोगों का भी विकास किया है। भारत वैसा क्यों नहीं कर सकता?

दिलचस्प बात यह है कि ये नेता जो आदिवासियो के हितों के नाम पर विकास परियोजनाओं को रोक रहे थे, आदिवासियों के नेताओ की हत्या करवाने के खिलाफ आंसू नहीं बहाया करते थे। बल्कि उनके नेताओं को माओवादी और नक्सलवादी कहकर उन्हें मारने का प्रमाणपत्र जारी किया करते थे। खनिज संपदा वाले इलाकों में शंकर गुहा नियोगी जैसे नेताओ की हत्या करवाई गई। आदिवासियों के हितों की लड़ाई लड़ रहे अनेक लोग मारे गए, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय पर कब्जा जमाया यह गठबंधन आदिवासी हितो के नाम का रोना रो रहा था।

जयंती नटराजन परियोजनाओं को रोके जाने से नाखुश नहीं थीं। बल्कि वह खुद उस काम को बहुत दिलचस्पी से कर रही थी। लेकिन उन्हें दर्द तब हुआ, जब उन्हें हटा दिया गया और परियोजनाओ को रोकने का सारा आरोप उनके ऊपर ही मढ़ दिया। चुनाव का समय नजदीक आने के साथ साथ राजनेताओं की प्राथमिकता बदल गई। उस बदली हुई प्राथमिकता की शिकार ही जयंती नटराजन हुई हैं, लेकिन सोनिया और राहुल के नाम सामने लाकर वह खुद दोषमुक्त नहीं हो सकतीं। (संवाद)