लोकसभा चुनाव के पहले जब सर्वे भाजपा के जीत की भविष्यवाणियां करते थे, तो भाजपा नेताओं को अपार खुशी होती थी। उसी को आधार बनाकर वे जीत का दावा करते थे। राजनाथ सिंह बार बार कहते थे कि नरेन्द्र मोदी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं और अपनी बात को सही साबित करने के लिए वे उन सर्वे का ही सहारा लिया करते थे।

अब चुनावी सर्वेक्षणों के खिलाफ भाजपा नेता आग उगल रहे हैं। वे उन सर्वेक्षणों को गलत मान रहे हैं। उनके खिलाफ सभी तरह की बातें की जा रही हैं। लेकिन वे अंदर से अंदर बहुत डरे हुए भी हैं। ज्यादातर नेता निजी बातचीत में हार की बात स्वीकार करते हैं, हालांकि ऐसे नेताओं की कमी नहीं, जो अब भी जीत के प्रति आशान्वित हैं। उन्हें लगता है कि ये सर्वे गलत साबित होंगे और मतदान का समय आते आते भाजपा के पक्ष में माहौल बन जाएगा।

दरअसल भाजपा इस चुनाव के लिए पूरी तरह से तैयार ही नहीं थी। लोकसभा चुनाव के बाद पार्टी की दिल्ली ईकाई और उसके अधिकांश विधायक चुनाव चाहते ही नहीं थे। उनकी राय थी कि आम आदमी पार्टी से दलबदल करवाकर पार्टी बहुमत का जुगाड़ करे और अपनी सरकार गठित करे। आम आदमी पार्टी के कुछ विधायक भाजपा में शामिल होने के पक्ष में भी बताए जा रहे थे, लेकिन उनकी संख्या इतनी कम थी कि दल बदलते ही उनकी सदस्यता समाप्त हो जाती।

भाजपा की निगाह कांग्रेस विधायकों पर भी गई, जिनकी संख्या मात्र 8 थी और जिसमें विभाजन करवाकर एक टूटे हुए गुट के समर्थन से सरकार बनाई जा सकती थी। पर भाजपा के लिए परेशानी का सबब यह था कि कांग्रेस के 8 विधायकों में से 4 मुसलमान थे और भाजपा के साथ मुसलमानों का 36 का आंकड़ा है। निजी लोभ में वे विधायक भाजपा के साथ जाने की सोच तो सकते थे, लेकिन अपने मुस्लिम मतदाता आधार के डर से वहां जा नहीं सकते थे। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस में कराई जा रही वह फूट जिसके तहत मुस्लिम विधायकों के भी उसकी ओर जाने की बात थी, का खुलासा करना शुरू किया और मुस्लिम विधायकों ने उसका खंडन करना शुरू किया। लिहाजा कांग्रेस के 6 विधायकों को अलग कर उनके समर्थन से सरकार बनाने की भाजपा की कोशिश भी नाकाम हो गई।

समय बीतता गया। भाजपा सरकार नहीं बना सकी और अंत में विधानसभा भंग हो गई। विधानसभा भंग होने के बाद भी भाजपा चुनावी मूड में नहीं दिखाई पड़ रही थी। बजट पेश होने के पहले वह चुनाव के लिए कतई तैयार नहीं थी। केन्द्र सरकार की ओर से भी फरवरी में चुनाव करवाने में आनाकानी हो रही थी, जिसके कारण चुनाव की तिथियों की घोषणा में बहुत देर हो गई। जानकार बताते हैं कि भाजपा और केन्द्र सरकार अप्रैल और मई महीने में चुनाव चाहती थी और इस बीच के समय का इस्तेमाल अपनी जीत का आधार तैयार करने में लगाना चाहती थी। अनधिकृत कालोनियों को अधिकृत करना उसकी जीत का आधार तैयार कर सकते थे। लेकिन निर्वाचन आयोग ने उनकी एक नहीं सुनी और फरवरी में ही चुनाव की घोषणा हो गई।

उसके बाद भाजपा ने जो भी किया, वह हड़बड़ी में किया। उसने हड़बड़ी में एक से बढ़कर एक गलतियां की। दिल्ली चुनाव जीतने के लिए उसके पास अपनी उपलब्धि दिखाने को कुछ नहीं था, जबकि नरेन्द्र मोदी के पीएम बनने के बाद दिल्ली प्रदेश की सरकार भी भाजपा की ही हो गई थी। दिल्ली का पिछला बजट वित्तमंत्री अरुण जेटली ने ही बनाया था और दिल्ली के उपराज्यपाल गृहमंत्री राजनाथ सिंह को रिपोर्ट करते हैं। दिल्ली पुलिस भी केन्द्र सरकार के हाथ में ही है। इस बीच दिल्ली के लिए कुछ ऐसा नहीं किया गया, जिसे दिखाकर भाजपा अपने लिए वोट मांगती।

आज यदि वह पिछड़ती नजर आ रही है, तो इसके लिए वह खुद ही जिम्मेदार है। उधर 49 दिन के का केजरीवाल सरकार का कार्यकाल आम आदमी पार्टी के काम आ रहा है। उस कार्यकाल का अनुभव दिल्ली के लोगों के एक हिस्से के सिर पर चढ़कर बोल रहा है। (संवाद)