लोकसभा चुनाव में हार के बाद उनकी सरकार खतरे में पड़ गई। उन्होंने समझदारी दिखाते हुए अपना पद छोड़ दिया और जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। इस तरह से अपनी सरकार गंवाने के बावजूद अपने दल की सरकार बचा ली और अपने हिसाब से एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बना डाला, जो उनके निर्देशों के आधार पर सरकार चलाता। दो महीने तक जीतन राम मांझी ने सरकार नीतीश के कहने पर ही चलाई, लेकिन नीतीश के लोग भी उनके ऊपर धौंस चलाने लगे, तो यह उनको बर्दाश्त नहीं हुआ। अपने खास लोगों के साथ जीतन राम मांझी के बिगड़ते संबंधों को नीतीश ठीक नहीं कर सके। मांझी का अपमान होता रहा और मांझी ने विद्रोह कर दिया और फिर तो नीतीश के साथ भी उनके मतभेद बढ़ते चले गए।
इसी बीच लालू यादव ने भी मांझी सरकार का समर्थन कर दिया था और अब सरकार को गिरने का खतरा नहीं था। समर्थन के साथ साथ लालू भी सरकार में शामिल होना चाहते थे और अपने परिवार में से किसी एक को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहता थे। नीतीश ने सौदेबाजी कर अपने को फिर से मुख्यमंत्री के पद पर लाने का सपना संजोना शुरू कर दिया। और फिर क्या था, मांझी हटाओ अभियान शुरू कर दिया। पर सवाल था कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे। जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री के रूप में दलितों के मसीहा के रूप में स्थापित हो गए थे। उनको हटाना तो लालू भी चाहते थे और नीतीश भी, लेकिन हटाने का दोष कोई भी अपने सिर पर नहीं लेना चाहता था। नीतीश कुमार अपनी राजनीति के लिए मीडिया का इस्तेमाल करने में लालू से बहुत आगे हैं। इसलिए उन्होंने मीडिया में यह प्लांट करवाना शुरू किया कि लालूजी चाहते हैं मांझी की जगह वे मुख्यमंत्री बन जाएं। लालूजी चाहते भी यही थे, लेकिन जब उनको लगा कि इस खबर के कारण दलितों में उनके बारे में गलत संदेश जा रहा है, तो उन्होंने उस खबर का खंडन कर दिया और कहा कि उनकी राजनीति ही दलितों के पक्ष में रही है, फिर वे किसी महादलित को मुख्यमंत्री पद से क्यों हटाना चाहेंगे?
जाहिर है, लालू के सिर पर बदनामी डालकर मुख्यमंत्री बनने की नीतीश की रणनीति विफल हो गई, लेकिन दोनो नेताओ के हित में र्मांझी का हटना जरूरी था। लालू अपने परिवार में से किसी को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहते थे और नीतीश खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। इसलिए दोनों नेता थोड़ा थोड़ा आगे बढ़े और एक महादलित को हटाने की जिम्मेदारी आपस में बांटने को तैयार हो गए।
लालू ने कहा कि उनका समर्थन जद(यू) की सरकार को है, न कि किसी व्यक्ति विशेष को। इसलिए जिसे भी सीएम बनाया जाएगा, उसका वे समर्थन करेंगे। फिर यह खबर उड़ाई गई कि मुलायम सिंह भी यही चाहते हैं कि मांझी को हटाकर नीतीश को सीएम बनाया जाय। और फिर मांझी को हटाने की गुपचुप चल रही कोशिश अब खुला रूप अख्तियार करने लगी।
पर इस उठा पटक में सबसे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार को ही हो रहा है। जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री रहें या न रहें- इससे उनका कोई नुकसान होने वाला नहीं है। सच कहा जाय तो उनके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं है। बिहार में दलित जागरण के प्रतीक पुरुष अब वे हो गए हैं। लेकिन नीतीश कुमार का सबकुछ दांव पर लग गया है। बिहार की जातीय राजनीति को अपने पक्ष में करने के लिए उन्होंने दलित और महादलित का विभाजन कर दिया था और खुद महादलितों का मसीहा कहने लगे थे। लेकिन मांझी प्रकरण ने उन्हें उन्हें दलितों का सबसे बड़ा गुनाहगार बना दिया है। आज पूरे प्रदेश में दलित उनका पुतला फृंक रहे हैं।
महादलितों के साथ साथ ओबीसी की कमजोर जातियों में भी नीतीश की छवि खराब हो गई है। यह तो उन्होंने लोकसभा चुनाव के पहले ही कर लिया था। प्रधानमंत्री ओबीसी की एक कमजोर जाति से आते हैं। उनके पीएम बनने का विरोध कर नीतीश ने उनके बीच अपनी लोकप्रियता गिरा दी है। अब महादलितों के तो वे खलनायक हो चुके हैं। जाहिर है प्रदेश की चुनावी राजनीति के हाशिए पर वे पहंुच चुके है।
यही कारण है कि नीतीश के लिए मुख्यमंत्री बनना करो या मरो का प्रश्न बन गया है। मुख्यमंत्री बनकर ही वे अपने आपको एक बार फिर चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में ला सकते हैं। वे कुछ ऐसे निर्णय कर सकते हैं, जिनसे वे कुछ सामाजिक वर्गों में अपनी छवि ठीक कर सकें।
इसलिए यदि मुख्यमंत्री बन गए, तब तो ठीक है, लेकिन यदि नहीं बने तो वे फिर कहीं का नहीं रह पाएंगे। यदि उनके पास राजनैतिक जनाधार ही नहीं रहेगा, तो फिर लालू यादव उनकी पार्टी के लिए ज्यादा सीटें क्यों छोड़ेंगे?
पर सवाल उठता है कि क्या नीतीश मुख्यमंत्री बन पाएंगे? वे अपनी चाल बहुत ही सोच समझकर चल रहे हैं, लेकिन राजनैतिक परिस्थितियां उनके पक्ष में नहीं दिखाई पड़ रही हैं। केन्द्र में भाजपा की सरकार है, जो बिहार में अपने हितों के अनुसार राजनीति करेगी और संभवतः यही चाहेगी कि नीतीश की सरकार नहीं बने। बहुत कुछ राज्यपाल पर निर्भर करेगा और बिहार के राज्यपाल के पद पर केशरीनाथ त्रिपाठी हैं, जो भारतीय जनता पार्टी के नेता रहे हैं और उत्तर प्रदेश विधानसभा के स्पीकर भी रहे हैं। कुछ विधायकों की सदस्यता के मामले उच्च न्यायालय में भी चल रहे हैं और नीतीश कुमार के जद(यू) विधायक दल का नेता चुना जाने का मामला भी उच्च न्यायालय में जा चुका है। जाहिर है, नीतीश को अनेक बाधाएं पार करनी होंगी और एक भी बाधा को पार करने में यदि वे विफल रहे, तो मुख्यमंत्री पद पर फिर नहीं बैठ पाएंगे। (संवाद)
भारत
उलटी पड़ गई है नीतीश की राजनीति
उनके लिए करो या मरो का सवाल
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-02-10 12:01
बिहार की राजनीति में नीतीश का सारा दांव उलटा पड़ता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर उनकी पार्टी मजे से सरकार चला रही थी और नीतीश कुमार के नेतृत्व को कहीं से चुनौती नहीं मिलती थी। भाजपा उनकी सभी जिद के सामने झुक जाती थी और हमेशा गठबंधन में ज्यादा लाभ उन्हीं को मिलता था। लेकिन प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा ने उनको कहीं का नहीं रहने दिया। नरेन्द्र मोदी का विरोध करते करते वे राजग से बाहर हो गए और अपनी बहुमत की सरकार को अलपमत में तब्दील कर दिया। वे कांग्रेस के समर्थन के मुहताज हो गए और दल बदल का काम शुरू कर दिया। सबसे ज्यादा चोट लगाई उन्हें लोकसभा के आम चुनाव ने। बिहार की राजनीति में वे नरेन्द्र मोदी के सामने बुरी तरह पिट गए। उनके दल को मात्र दो सीटें मिलीं और उनके ऊपर ओबीसी विरोधी होने का आरोप अलग से लगा, क्योंकि नरेन्द्र मोदी ओबीसी हैं।