दिल्ली चुनाव के नतीजों से यह पता चलता है कि यदि पुरानी पार्टियों ने आम आदमी की आकांक्षाओं को पूरा नहीं किया, तो आने वाले दिनों में क्या हो सकता है। आम आदमी को मिला वोट न केवल एक सकारात्मक वोट था, बल्कि यह बदलाव के लिए किया गया वोट था। यह पुरानी आजमाई गई पार्टियों के लिए भी किया गया वोट था। इसने यह साबित कर दिया कि नौ महीने के अंदर ही दिल्ली में केजरीवाल फेनोमेनन मोदी फेनोमेनन पर भारी पड़ गया है। गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में अप्रैल 2014 में दिल्ली में मोदी की भारी जीत हुई थी। सातों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार जीत गए थे और विधानसभा की 70 सीटों में से 60 में भाजपा के उम्मीदवार आगे थे।
विपक्ष की जगह की जब शरद पवार बात करते थे, तो वे सही थे। एक समय था, जब लग रहा था कि देश की राजनीति द्विदलीय व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। फिर लगने लगा कि राजनीति दो मोर्चों के बीच निर्धारित होगी। एक मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ में होगा, तो दूसरे मोर्चे का नेतृत्व भाजपा के हाथ में होगा। लेकिन देश की 130 साल पुरानी पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में अंडा हाथ लगा है। उसका कोई उम्मीदवार जीत नहीं सका। उसके मात्र 4 उम्मीदवार ही दूसरे स्थान पर आ सके और उसके 70 में से 63 उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गईं।
2013 के विधानसभा चुनाव तक दिल्ली में कांग्रेस एक बडी ताकत थी। उसने उसके पहले दिल्ली प्रदेश की सरकार लगातार 15 सालों तक चलाई थी। लेकिन उसकी इस चुनाव में ऐतिहासिक दुर्गति हो गई। दुर्गति का यह दौर जो शुरू हुआ था, वह समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा है। लोकसभा चुनाव में उसे मात्र 44 सीटें हासिल हुई थीं और उसकी हैसियत लोकसभा में मुख्य विपक्ष कहलाने की भी नहीं रह गई थी।
लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों में भी उसकी दुर्दशा जारी रही। पहले हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव हुए। दोनों राज्यों में कांग्रेस सत्ता में थी। दोनों में न केवल कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई, बल्कि वह दोनों राज्यों में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी। उसकी दुर्दशा जम्मू और कश्मीर व झारखंड विधानसभा चुनावों में भी जारी रही। दोनों राज्यों मंे वह चैथे नंबर की पार्टी बनकर रह गई, सत्ताा में आने की बात तो बहुत दूर की कौडी थी। जाहिर है, कांग्रेस अब लगातार अप्रासंगिकता की ओर बढ़ती जा रही है। सत्ता में आना तो दूर वह अधिकांश राज्यों में मुख्य विपक्ष की भूमिका से भी बाहर होती जा रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली विधानसभा के चुनाव देश के अन्य राज्यों की राजनीति को भी प्रभावित करने वाले हैं। आने वाले दो सालों में जहां जहां विधानसभा के चुनाव होंगे, वहां इसका असर होगा। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा एक के बाद एक विधानसभाओं के चुनाव जीतती जा रही थी। दिल्ली ने साबित कर दिया है कि भाजपा को भी हराया जा सकता है। इसके कारण भाजपा विरोधी पार्टियों को खुशी मिल रही है।
आम आदमी पार्टी का देश भर में विस्तार नहीं है। दिल्ली के बाद पंजाब में ही सबसे ज्यादा सफल रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसे पंजाब में 4 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। उसने तब 400 से ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर डाले थे और एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरने का सपना पाल लिया था। लेकिन तब उसे निराशा ही हाथ लगी थी।
सवाल उठता है कि आने वाले दिनों में किसी तरह का विपक्ष उभरेगा। क्या विपक्षी पार्टियां दिल्ली चुनावों से सबक सीख पाएंगी? वे पार्टियों मुस्लिम मुस्लिम की रट बहुत लगाती है, लेकिन आम आदमी पार्टी ने मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति नहीं की। इसके बावजूद उसे सफलता मिली और मुसलमानों का समर्थन भी मिला। आम आदमी पार्टी ने पहचान की राजनीति नहीं की। इसका भी उसे फायदा मिला। (संवाद)
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दिल्ली का चुनाव राष्ट्रीय दलों के लिए खतरे की घंटी
मोदी विरोधियों के लिए आप की जीत संजीवनी
कल्याणी शंकर - 2015-02-13 12:18
आम आदमी पार्टी की जीत से संदेश यह निकल रहा है कि देश की जनता किसी नये विकल्प को भी आजमाना चाहते हैं। यह वोलंटियर माॅडल की राजनीति की भी जीत है। गौरतलब हो कि युवा वोलंटियरों के सहारे ही आम आदमी पार्टी ने जीत हासिल की।