भाजपा की रणनीति थी कि मांझी सरकार का पतन हो और नीतीश कुमार एक बार फिर मुख्यमंत्री बनें और इस प्रकरण में उसके ऊपर दलित विरोधी होने का ठप्पा भी नहीं लगे। दलित विरोधी होने का ठप्पा क्या, भाजपा इस पूरे प्रकरण में अपने आपको दलितों का हितैषी के रूप मे उभारने की कोशिश करती दिखाई पड़ी और वह भी जीतन राम मांझी की सरकार के पतन को सुनिश्चित करते हुए। यही कारण है कि उसने समय रहते जीतन राम मांझी की सरकार को सदन में समर्थन करने का निर्णय नहीं किया। यदि समय रहते उसका यह निर्णय आता, तब मांझी की सरकार बच सकती थी। लेकिन भाजपा कभी चाहती नहीं थी कि मांझी की सरकार बचे। इसलिए शुरू से उसकी रणनीति रही कि उसके समर्थन के बावजूद मांझी सरकार गिरे, ताकि दलित हितैषी होने की उसकी छवि बन जाय और एक दलित मुख्यमंत्री अपने पद से हट भी जाय।
भाजपा की इस रणनीति से स्पष्ट है कि उसका मांझी से कभी कोई लगाव था ही नहीं और नीतीश और उनके समर्थकों द्वारा यह बात फैलाना कि चुनाव के समय मांझी भाजपा के साथ चले जाएंगे महज उनकी कल्पना की उपज थी। वह कल्पना नीतीश कुमार को दुबारा मुख्यमंत्री बनाने के लिए की गई थी। उसके द्वारा लालू और मुलायम जैसे कथित जनता दल परिवार के अन्य नेताओं को मांझी को हटाने की अनिवार्यता के प्रति आश्वस्त कराया गया।
जाहिर है, मांझी को हटने से भाजपा और नीतीश दोनों की इच्छाएं पूरी हुईं। भाजपा शायद उत्तर प्रदेश में एक दूसरी मायावती नहीं पैदा होते देखना चाहती थीं। मांझी एक अलग किस्म के नेता साबित हो रहे थे, जो व्यवस्था की खामियों को सीधे जनता के बीच उजागर कर रहे थे। इसके कारण भी भाजपा डर गई होगी। और इन सबसे बड़ा कारण शायद वह नेक्सस भी हो सकता है जो नरेन्द्र मोदी को पीएम बनने से रोकने के लिए बना था। यह नेक्सस था नीतीश कुमार, सुशील कुमार मोदी ओर अरुण जेटली का। इस नेक्सस में नीतीश और जेटली की पीएम बनने की अपनी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं और सुशील कुमार मोदी दोनों को खुश करने के लिए इसमें शामिल थे। सुशील कुमार को शायद इस बात का भी डर था कि यदि नरेन्द्र मोदी पीएम बन गए तो बिहार की जातिवादी राजनीति में उनकी उपयोगिता समाप्त हो जाएगी। इसलिए भी वे नरेन्द्र मोदी के खिलाफ बने नेक्सस का हिस्सा बन गए। इस नेक्सस ने नरेन्द्र मोदी को पीएम बनने से रोकने में तो नाकामी पाई, लेकिन मोदी के पीएम बनने के बाद मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए विवश हुए नीतीश कुमार को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाने में कामयाबी पाई।
नीतिगत निर्णय के लिए प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अरुण जेटली पर बहुत हदतक निर्भर करते हैं। दिल्ली चुनाव की पूरी रणनीति अरुण जेटली की ही थी, जिसके कारण भाजपा का वहां सफाया हो गया। बिहार की रणनीति निर्धारित करने में उनकी जरूर भूमिका रही है और उन्होंने नीतीश को फिर से मुख्यमंत्री बनने में सहायता ही की। सुशील कुमार मोदी को खुद भी मांझी से खतरा लग रहा था। चुनाव के पहले मांझी कहीं भाजपा में शामिल न हो जायं और पार्टी उनके सीएम उम्मीदवार न बना दे, इसका डर भी शायद उनका सता रहा था। इसलिए भी उनके लिए जरूरी हो गया था कि वे अभी ही मांझी को हटवाने की कोशिश करें, ताकि चुनाव आते आते मांझी लोगों की स्मृति से निकल जाएं। जब भाजपा के अंदर सुशील कुमार मोदी और अरुण जेटली जैसे शुभचिंतक हों, तो फिर नीतीश के लिए दुबारा मुख्यमंत्री कठिन नहीं था और वे मुख्यमंत्री बन भी रहे हैं।
नीतीश ने मुख्यमंत्री का पद तो हासिल कर लिया, लेकिन इस क्रम में उन्होंने अपना सबकुछ गंवा दिया है और आगे की राजनीति के लिए वे पूरी तरह से लालू यादव पर निर्भर हो गए हैं। बिहार की जाति राजनीति में नीतीश को लालू के खिलाफ ओबीसी में उपजे असंतोष का फायदा मिला। उस असंतोष का लाभ वे अपने दम पर नहीं उठा सकते थे, क्योंकि इसके लिए उनके पास कोई सांगठनिक ढांचा नहीं था और संसाधन भी नहीं थे। उन्हें मीडिया का समर्थन 1995 के चुनाव में मिला था, लेकिन हार के बाद वह भी नहीं मिल रहा था। उनकी इन कमजोरियों की भरपाई भाजपा ने कर दी। वे भाजपा की संगठन शक्ति और उसके संसाधनों के बूते लालू विरोधी ओबीसी का नेता बनने लगे और भाजपा के साथ मिलकर ही लालू को बिहार की राजनीति से उखाड़ फेंका।
सत्ता में आकर नीतीश ने अपने तरीके से जाति राजनीति करनी शुरू कर दी। पिछड़ा वर्ग और अत्यंत पिछड़ा वर्ग का विभाजन आरक्षण पाने के लिए पहले से ही था, लेकिन दोनों वर्गों में कभी भी राजनैतिक विभाजन नहीं था। कर्पूरी ठाकुर अत्यंत पिछड़े वर्ग से आते थे, लेकिन वे सभी पिछडे वर्गों के सर्वमान्य नेता था। लालू यादव भी अपने अच्छे दिनों में सभी पिछड़े वर्गों के नेता थे। लेकिन नीतीश ने पिछड़ा और अतिपिछड़ा में राजनैतिक विभाजन करना शुरू कर दिया। जब कर्पूरी ठाकुर ने मंुगेरी लाल के इस फाॅर्मूले को बिहार में आरक्षण देते हुए लागू किया था, तब नीतीश ने उसका विरोध किया था। लेकिन मुख्यमंत्री बनकर नीतीश ने अनुसूचित जातियों के लोगों के बीच भी दलित और महादलित की अवधारणा पैदा कर दरार पैदा करने की कोशिश की। मुसलमानों में भी अगड़ा मुसलमान और पिछड़ा मुसलमान का राजनैतिक विभाजन पैदा किया।
पर नीतीश की यह सोशल इंजीनियरिंग धराशाई हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी के पीएम बनने का विरोध कर ओबीसी में वे अपनी प्रतिष्ठा गंवा चुके हैं और जीतन राम मांझी को अपमानित कर उन्होंने दलितो का विश्वास खो दिया है। वे मुख्यमंत्री तो एक बार फिर बन गए हैं, लेकिन अपनी राजनीति के लिए पूरी तरह लालू पर निर्भर हो गए हैं। देखना दिलचस्प होगा कि एक कमजोर लालू उनको कबतक ढोते हैं। (संवाद)
भारत: बिहार
अब लालू भरोसे नीतीश कुमार
छला गया फिर सामाजिक न्याय
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-02-21 10:36
जीतन राम मांझी की बिदाई हो गई है और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री भी हो गए हैं, लेकिन इस प्रकरण ने बिहार के समाज को जबर्दस्त तरीके से आंदोलित कर डाला है। आखिर मांझी क्यों हटाए गए, इसके बारे में कोई भी विश्वसनीय कारण न तो नीतीश कुमार बता पाए हैं और न ही उनके कोई समर्थक। आॅफ द रिकाॅर्ड नीतीश के समर्थक बताते थे कि विधानसभा चुनाव के ठीक पहले जीतन राम मांझी भाजपा में शामिल हो जाएंगे और तब जनता दल परिवार का बहुत ही चुनावी नुकसान हो जाएगा। उस नुकसान से बचने के लिए ही मांझी को जल्द से जल्द हटाना जरूरी है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में भारतीय जनता पार्टी की जो भूमिका रही है, उससे साफ हो जाता है कि भाजपा के साथ मांझी का कभी कोई उस तरह का संवाद रहा ही नहीं। भाजपा ने मांझी सरकार को बचाने की कोई कोशिश की ही नहीं।