भारतीय जनता पार्टी ने कुछ इस तरह मांझी का सहयोग किया कि उनकी सरकार नहीं बचे। राज्यपाल ने मांझी द्वारा मंत्रिमंडल के विस्तार की मांग को भी ठुकरा दिया। जब मंत्रिमंडल से 22 सदस्य बाहर हो गए हों या कर दिए गए हों, उसके बाद उनकी जगह पर नये मंत्रियों की नियुक्ति आवश्यक हो जाती है। लेकिन राज्यपाल ने उनकी नियुक्ति की इजाजत जीतनराम मांझी को नहीं दी। इसके कारण भी जीतनराम मांझी के लिए सरकार बचाना असंभव हो गया।
स्पीकर ने, जो खुद भी दलित समुदाय से ही आते हैं, ऐसे निर्णय किए, जिनसे माझी की स्थिति कमजोर हो गई। उन्होंने संविधान के अनुसार काम नहीं किया। संविधान में नेता प्रतिपक्ष की व्यवस्था की गई है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष थे नन्दकिशोर यादव। नीतीश कुमार ने अपने दल के विजय कुमार चैघरी को नेता प्रतिपक्ष बनाने की मांग कर दी। स्पीकर ने पहले तो संकेत दिया कि वे विजय चैधरी को नेता प्रतिपक्ष के रुप में मान्यता देंगे, लेकिन इस तरह का आदेश नहीं जारी किया गया और विधानसभा के सदन के बारे में उन्होंने जो व्यवस्था दी, उसके अनुसार कोई नेता प्रतिपक्ष था ही नहीं।
जनता दल(यू) को उन्होंने विपक्षी पार्टी मान लिया, लेकिन समस्या यह थी कि जीतनराम मंत्रिमंडल में भी जनता दल(यू) के विधायक थे, जिन्हें दल ने सस्पेंड तो किया था, लेकिन पार्टी से निकाला नहीं था। इस तरह विधानसभा की व्यवस्था के अनुसार एक ही दल के कुछ विधायक मंत्री के रूप में सत्तारूढ़ पक्ष में बैठने वाले थे, जबकि उसके अधिकांश सदस्यों को विपक्षी विधायक मान लिया गया था। एक ही दल विपक्ष और सत्ता में, इस तरह की व्यवस्था स्पीकर ने कर दी थी, जिसका कोई अन्य उदाहरण हमारे देश के इतिहास में नहीं मिलता। हमारे देश के ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में इसका कोई अन्य उदाहरण नहीं मिलता है कि एक ही दल सत्ता में भी हो और विपक्ष में भी।
स्पीकर ने जो कुछ किए वह स्पष्ट रूप से संविधान संगत नहीं दिखाई दे रहा था। जीतनराम मांझी ने वैसे माहौल मे मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर एक परिपक्व नेता होने का परिचय दिया। वे चाहते, तो विधानसभा का सामना करके भी अपना पद गंवाने के विकल्प का इस्तेमाल कर रहे थे, लेकिन अपने पद से इस्तीफा देकर उन्होंने सदन की गरिमा की रक्षा की, जिसको लेकर संदेह और भ्रम का वातावरण बन गया था।
अपने पद से इस्तीफा देकर और गंेद राज्यपाल के पाले में डालकर मांझी दृश्य से हट गए। लेकिन राज्यपाल को जो करना चाहिए था, वह उन्होंने नहीं किया। संविधान में स्पष्ट व्यवस्था है कि संवैधानिक तरीके से यदि किसी राज्य मे व्यवस्था नही चल रही हो, और सांवैधानिक टूटन की स्थिति पैदा हो गई हो, तो धारा 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है। लेकिन राज्यपाल ने उस प्रावधान का इस्तेमाल नहीं किया, जबकि स्पीकर जो कुछ कर रहे थे, उससे संविधान की व्यवस्था लड़खड़ा रही थी।
स्पीकर और राज्यपाल द्वारा निराश होने और दल बदल कानून के भय के कारण अपने साथ विधायकों को जोड़ नहीं पाने के कारण मांझी का मुख्यमंत्री पद से हट जाना उतनी बड़ी घटना नहीं है, जितनी बड़ी घटना बिहार के दतिलों मंे आई वह राजनैतिक चेतना है, जिसके तहत वे यह महसूस करने को बाध्य हो गए हैं कि संविधान ने भले ही अस्पृश्यता समाप्त कर दिया हो, लेकिन वे अभी भी राजनैतिक अश्पृश्यता के शिकार हैं और उनके समुदाय के योग्य व्यक्ति को मुख्यमंत्री के पद पर देखने से समाज का आभिजात्य समुदाय अभी भी बचना चाहता है। समाज के बौद्धिक वर्गों के एक बड़े हिस्से और मीडिया की भूमिका भी मांझी विरोधी ही रही।
इन सबके कारण आज जीतनराम मांझी बिहार के दलितों और अन्य कमजोर वर्गों के एक बड़े नेता के रूप में उभर गए हैं। उनके पहले भी बिहार में दो दलित मुख्यमंत्री हो चुके हैं, लेकिन उन दोनों को ओबीसी के उभार को रोकने के लिए समाज के सामंती तबके ने इस्तेमाल किया था। कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद रामसुन्दर दास को मुख्यमंत्री बनाया गया था। कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार 1971 में मुख्यमंत्री थे, तब भी उन्हें हटाकर एक दलित भोला पासवान को ही मुख्यमंत्री बनाया गया था। वे दोनो मुख्यमंत्री तो बन गए थे, लेकिन उनके कारण दलित राजनीति में वह चेतना नहीं आ पाई, जो जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने और हटाए जाने के बाद आई।
गौरतलब हो कि बिहार के ओबीसी समुदाय में चेतना समाजवादी आंदोलन और कर्पूरी ठाकुर के कारण आई थी। कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने जो कुछ किया वह इतिहास बन गया और जिस तरह से उनको हटाया गया, उसने बिहार के कमजोर वर्गों को झकझोर कर रख दिया। उसके बाद बिहार की राजनीति ही बदल गई। कर्पूरी ठाकुर के कारण बिहार की की राजनीति में जो बदलाव हुआ, उसके कारण लालू मुख्यमंत्री बने। उसके बाद राबड़ी और नीतीश का मुख्यमंत्री बनना भी कर्पूरी क्रांति के कारण ही संभव हो पाया था।
जीतनराम मांझी को भले ही नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री बनाया हो, लेकिन उसके पीछे भी कर्पूरी क्रांति का ही हाथ था। बिहार के ओबीसी राजनैतिक चेतना के कारण भाजपा को लोकसभा चुनाव में भारी जीत मिली, क्योंकि नरेन्द्र मोदी ओबीसी है। उस राजनैतिक चेतना के खिलाफ राजनीति करने के कारण नीतीश की करारी हार हुई और उनकी सरकार गिरती दिखाई पड़ी। अपनी सरकार गिरती देख उन्होंने नीतीश ने खुद इस्तीफा दे दिया और मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। ऐसा कर उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि वे मोदी का विरोध ओबीसी विरोध नहीं था, क्योंकि वे ओबीसी क्या, एक महादलित को सीएम बना सकते हैं। यह संदेश देने में तो वे सफल रहे, लेकिन वे जीतनराम मांझी को भोला पासवान शास्त्री और रामसुन्दर दास बनाने में सफल नहीं हुए।
कर्पूरी ठाकुर के बाद जीतनराम मांझी बिहार के दूसरे सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित हो चुके हैं। अगले चुनाव में वे जिस पक्ष के साथ रहेंगे, उसी की जीत होगी और यदि वे किसी पक्ष के साथ नहीं रहे और कोई अपना अलग पक्ष बनाकर राजनीति की, तो बिहार में त्रिशंकु विधानसभा अस्तित्व में आ सकती है। (संवाद)
बिहार की राजनीति में मांझी फैक्टर
दलितों के मसीहा के रूप में उभर चुके हैं जीतनराम
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-03-01 15:19
जीतनराम मांझी अब मुख्यमंत्री नहीं हैं। लेकिन अब वे बिहार की राजनीति में एक बहुत बड़ा फैक्टर बच चुके हैं। यह सच है कि खुद उनके अपने जनता दल(यू) के ही दलित विधायकों ने भी उनका साथ संकट के दौर में नहीं दिया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बिहार के दलित भी उनके साथ नहीं हैं। सच तो यह है कि बिहार की राजनीति अब वह नहीं रही, जो कुछ दिन पहले थी। दलितों में आई राजनैतिक चेतना और अपने में से किसी एक को मुख्यमंत्री बनाने की उनकी भूख जाग गई है। जिस तरह से मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया, उसे लेकर भी उनमें आक्रोश है।