सच कहा जाय, तो पार्टी अपने अस्तित्व के समाप्त होने के खतरे के दौर से गुजर रही है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को महज 44 सीटें ही हासिल हुई थीं। उसके बाद विधानसभा के चुनावों मंे पार्टी की स्थिति बद से बदतर होती चली गई है। हरियाणा में कांग्रेस तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस भाजपा और शिवसेना के बाद तीसरे नंबर की पार्टी बनी। जम्मू और कश्मीर में तो वह चैथे नंबर की पार्टी बन गई है। झारखंड में भी उसने चैथा स्थान हासिल किया। सबसे ज्यादा दुर्गति तो उसकी दिल्ली में हुई, जहां उसे एक सीट भी नहीं मिली। यह पार्टी के लिए पहला मौका था कि जिस राज्य में वे कई साल तक सत्ता में रही हो, वहां चुनाव में विधानसभा की एक सीट भी नहीं मिले। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी के समाप्त होने का खतरा साफ साफ दिखाई दे रहा है।

हार के कुछ कारण तो साफ साफ देखे जा सकते हैं। उसके लिए किसी प्रकार के मंथन की जरूरत नहीं है। यूपीए का दूसरा कार्यकाल बड़े बड़े घोटालों के सामने आने के लिए जाना जाएगा। इसके अलावा लोगों में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ सहज आक्रोश था। यूपीए के कार्यकाल के अंतिम तीन सालों में तो भ्रष्टाचार के मामले एक के बाद एक आ रहे थे। कांग्रेस के नेता और खासकर मंत्री उन मामलों के सामने आने के बाद भी अहम मे चूर रहे। उनका अहंकार देखते बनता था। लोगों को यह अच्छा नहीं लगा।

दूसरी तरफ राहुल गांधी का लोगों से मिलना जुलना काफी कम हो गया था। वे अपनी पार्टी के लोगों को भी समय नहीं दे रहे थे। वे अपने इर्द गिर्द जमा कुछ लोगों से ही मिला करते थे। सच कहा जाय, तो वे लोगों के मूड के बारे में कभी समझ ही नहीं पाए। अलग थलग रहने का उनका स्वभाव पार्टी के लिए घातक साबित हुआ। यही कारण है कि जब एक बार पार्टी का पतन शुरू हुआ, तो उसने फिर रूकने का नाम नहीं लिया। कांग्रेस पार्टी ने भी एक से बढ़कर एक गलती की। उनमें से सबसे बड़ी गलती थी समृद्ध आंध्र प्रदेश का विभाजन। इसके कारण कांग्रेस ने अपने अंतिम गढ़ को खो दिया। अकेले आंध्र प्रदेश से लगभग तीन दर्जन लोकसभा सीटें पाने वाली कांग्रेस पूरे देश भर में 44 सीटों पर सिमट कर रह गईं।

2009 से 2014 के बीच कांग्रेस के वोट 9 फीसदी कम हो गए। 28 फीसदी से कम होकर वह 19 फीसदी तक सीमित हो गए हैं। अनुभव यही कहता है कि जिस किसी राज्य में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 20 फीसदी से नीचे गया, वहां कांग्रेस ने फिर कभी वापसी नहीं की। महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली में इसे 20 फीसदी से कम मत मिले हैं और वहां इसकी वापसी बहुत ही कठिन है। झारखंड भी इसका अपवाद नहीं है। वहां तो वह दशकों से उबर नहीं पा रही है।

कांग्रेस के पतन के अनेक कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण नेतृत्व ही है। नेतृत्व के पास चिंतन की कोई दिशा नहीं है और पार्टी के पतन में किसी तरह का राजनैतिक हस्तक्षेप करने में वह विफल साबित हो रहा है। राहुल गांधी उस समय गायब हो जाते हैं, जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत पार्टी को होती है। सच कहा जाय तो पार्टी नेतृत्व ने कभी भी अपनी गलती स्वीकार ही नहीं की और हार की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर नहीं ली। सत्ता गंवाने के बाद भी पार्टी मोदी सरकार को कटघरे में खड़ी करने के लिए अन्य विपक्षी दलों से मिलकर कोई रणनीति नहीं अपनाई। इस समय भूमि अधिग्रहण विधेयक पर विपक्ष सरकार के खिलाफ खड़ा है। यह राहुल गांधी का भी प्रिय विषय रहे, लेकिन ऐन मौके पर राहुल दृश्य से ही गायब हैं।

राहुल की अनुपस्थिति में तरह तरह की बातें की जा रही हैं। कमलनाथ ने तो यहां तक कह दिया है कि पार्टी की मुख्य समस्या दो सत्ता केन्द्रों का होना है। सत्ता का एक केन्द्र सोनिय हैं तो दूसरा राहुल। यदि कोई सोनिया के पास कोई समस्या लेकर जाता है, तो वह उसे राहुल से मिलने को कहती हैं और यदि कोई राहुल से बात करे, तो वह सोनिया से बात करने के लिए कहते हैं। इस तरह अनिर्णय में कांग्रेस फंसी हुई है। कमलनाथ चाहते हैं कि राहुल गांधी को अध्यक्ष बना दिया जाय, ताकि पता चले कि वे क्या करना चाहते हैं और जो करना चाहते हैं उससे पार्टी को कितना लाभ होता है। (संवाद)