भ्रष्टाचार के विरोध हो रहे उस आंदोलन में अनेक पृष्ठभूमि के लोग थे। उसमें उग्रवामपंथी तत्व भी थे, तो उग्र दक्षिणपंथी तत्व भी शामिल थे। उसमें भारी संख्या में ऐसे लोग भी थे, जो अपने को अराजनैतिक कहते हैं। अन्ना हजारे भी खुद अपने को अराजनैतिक ही कहा करते थे और आज भी यही कहते हैं। राजनैतिक लोगों से नफरत रखने वाले लोग उस आंदोलन के पहले मोर्चे पर थे और उनका एक प्रिय नारा था-’’सारे नेता चोर हैं’’। उस आंदोलन में कुछ ऐसे अवसरवादी तत्व भी थे, जो उसमें घुसकर अपनी पहचान बनाना चाहते थे। उनमें पहले से पहचाने जाने वाले कुछ ऐसे लोग भी थे, जो अपनी पुरानी पहचान को और भी मजबूत करना चाहते थे और लोगों के सामने अपने आपको प्रभावी ढंग से पेश करना चाहते थे। उसमें अनेक शौकिया लोग भी थे।
आंदोलन जब पार्टी के रूप में तब्दील हुआ तो, उसमें तरह तरह के लोग एक साथ आ गए। कुछ लोग उसमें नहीं भी शामिल हुए। अन्ना खुद उससे बाहर रहे। किरण बेदी भी उसमें शामिल नहीं हुई। आंदोलन की शुरुआत मे बाबा रामदेव भी उसके साथ थे, लेकिन महत्व नहीं मिलने के कारण वे बहुत जल्द उससे बाहर हो गए। स्वामी अग्निवेश पर आरोप लगा कि वे सत्ता में बैठे लोगों घालमेल बैठाने के लिए वे इस आंदोलन का इस्तेमाल कर रहे हैं। उसके बाद वे भी बाहर हो गए। किसी पर आरोप लगा कि वह सरकार की ओर से जासूसी कर रहा है। उसे भी बाहर कर दिया गया। अनेक लोग आंदोलन के दौरान ही बाहर हो गए और अनेक लोग पार्टी बनने के समय उसमें नहीं आए।
लेकिन तरह तरह के लोग आम आदमी पार्टी में आ गए। कुछ वास्तव में जूनूनी थे, तो कुछ कैरियरवादी। कुछ मिशन के तहत इसके लिए काम कर रहे थे, तो कुछ अपना भविष्य संवारने के लिए इसे आजमा रहे थे। पार्टी बनने के बाद और भी अन्य लोग जुड़े और जब कांग्रेस के सहयोग से केजरीवाल की पहली सरकार बनी, तो अवसरवादियों ने तो इसमें शामिल होने के लिए लाइन लगा दी। अनेक धनपशु और अपने अपने पेशे में नाम कमाए हुए खास लोग इस आम आदमी की पार्टी में आने लगे, ताकि वे अपना राजनैतिक सितारा चमका सकें। लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी को भारी झटका लगा। पार्टी की भारी हार हुई। पंजाब में कुछ बेहतर प्रदर्शन ने पार्टी की इज्जत थोड़ी जरूर बचाई, लेकिन दिल्ली में उसकी ऐसी हार हुई कि उस समय खुद केजरीवाल को भी लगने लगा कि यदि कांग्रेस के समर्थन से सरकार बन गई, तो शायद पार्टी बच जाए। यदि लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मोदी सरकार ने विधानसभा भंग कराके विधानसभा का चुनाव करा दिया होता, तो आम आदमी पार्टी का उस चुनाव में जीतना असभंव हो जाता। लेकिन भाजपा चुनाव कराने के बदले आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर सरकार बनाने की कोशिश करती रही और इस कोशिश में उसने बहुत समय गंवा दिया और तबतक दिल्ली में नरेन्द्र मोदी का जादू लोगों के सिर से उतर गया। विलंब ने आम आदमी पार्टी को फिर से दिल्ली में एक बड़ी ताकत बना दी। मोदी का करिश्मा उतरते ही केजरीवाल का करिश्मा लोगों को चमत्कृत करने लगा। केजरीवाल सरकार के 49 दिनों को यादकर दिल्ली की जनता का दिल फिर से आप की सरकार पाने के लिए मचलने लगा। चुनाव हुए और भी पार्टी ने एक ऐसी जीत दर्ज की, जो हमारे देश में पहले किसी भी चुनाव में नहीं देखी गई थी।
दिल्ली की भारी जीत के बाद आम आदमी पार्टी के अंदर का सत्ता संघर्ष तेज हो गया। उस संघर्ष की पृष्ठभूमि चुनाव अभियान के दौरान ही बन गई थी। सच कहा जाय, तो लोकसभा चुनाव की पराजय के बाद ही पार्टी के अंदर सबकुछ ठीक नहीं चल रहा था। लोकसभा चुनाव के समय और उसके बाद अनेक नेताओं के असली चेहरे सामने आने लगे थे। कहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने का सुझाव सबसे पहले योगेन्द्र यादव ने ही दिया था। वे उत्साह में आकर अरविंद केजरीवाल को देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित करने लगे थे। उनके खिलाफ हरियाणा की आम आदमी पार्टी के नेता विरोध करने लगे थे। उनकी अपनी महत्वाकांक्षा भी बढ़ने लगी थी। भूषण परिवार के साथ भी मतभेद बढ़े। 2015 का चुनाव केजरीवाल ने 2013 और 2014 के चुनावों के अनुभवों को घ्यान में रखकर लड़ा। अनुभव ने उन्हें व्यवहारवादी बना दिया, लेकिन प्रशांत भूषण का सिद्धांतवाद उनके व्यवहारवाद को पचा नहीं पा रहा था। अलग अलग कारणों से केजरीवाल का योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण से मतभेद हो गए। शशि भूषण ने किरण बेदी के पक्ष में जो बयान जारी किया, वह बहुत ही घातक साबित हो सकता था, लेकिन तबतक दिल्ली के लोगों का मूड आम आदमी पार्टी के पक्ष में बन चुका था। इसके कारण शांति भूषण का वह बयान किरण बेदी के काम नहीं आया।
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को दरकिनार किए जाने के साथ कीचड़ उछलने और उछालने का दौर जारी रहेगा। अंदरूनी जंग में कुछ और भी चेहरे सामने आ सकते हैं। केजरीवाल आने वाले राज्य विधानसभाओं के चुनावों मंे पार्टी के भाग लिए जाने के खिलाफ हैं, जबकि जहां जहां चुनाव होने वाले हैं, वहां के आप कार्यकत्र्ता चुनाव मंे हिस्सा लेना चाहेंगे। योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण भी चुनाव में भाग लेने के पक्षधर हैं। इसलिए दिल्ली के बाहर के राज्यों में शायद अंदरूनी लड़ाई में उन्हें अच्छा समर्थन मिले। इस तरह यह लड़ाई एकतरफा नहीं रह जाएगी। (संवाद)
भारत
आम आदमी पार्टी का घमसान
आंदोलन से निकली पार्टी में यह अस्वाभाविक नहीं है
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-03-11 15:33
आम आदमी पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों को इसकी राजनैतिक मामलों की समिति (पीएसी) से बाहर कर दिया गया। बहुत संभावना है कि उन दोनों को पार्टी की कार्यसमिति से भी बाहर कर दिया और अंत में पार्टी की सदस्यता से उन्हें बेदखल कर दिया जाय। यह भी संभव है कि पार्टी में एक विभाजन भी हो जाय। आम आदमी पार्टी का गठन जिन परिस्थितियों में हुआ है, उनमें यह स्वाभाविक है। यह पार्टी अन्ना के आंदोलन से निकली है। अन्ना का आंदोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन था, जिसमें भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्र में एक लोकपाल और राज्यों में भी उसी तरह की संस्था बनाने की मांग थी।