सीपीआई और सीपीएम लंबे अर्से से राष्ट्रीय पार्टियों के रूप में मान्यता प्राप्त हैं, लेकिन उन दोनों की यह हैसियत अब खतरे में पड़ रही है। हो सकता है जल्द ही दोनों क्षेत्री पार्टियों के रूप में निर्वाचन आयोग द्वारा अधिसूचित हो जाय। ये दोनों पार्टियां लगातार सिकुड़ती जा रही हैं। पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल से बाहर वे अपना अस्तित्व लगभग खो चुकी हैं। पश्चिम बंगाल में भी वे हाशिए की ओर जा रही है। और तीन राज्यों में अपनी उपस्थिति के बूते वे राष्ट्रीय पार्टियों का तगमा अपने साथ बरकरार नहीं रख सकती हैं। वर्तमान लोकसभा में सीपीएम के पास मात्र 9 सीटें हैं, जबकि सीपीआई के पास मात्र एक।
क्षेत्रीय पार्टियों का जिस तरह से उभार हो रहा है, उससे लगता है कि आने वाले दिनों में भी देश की राजनीति पर क्षेत्रीय पार्टियां हावी रहेंगी। हमारे देश में लोकसभा के साथ साथ राज्यसभा से भी विधेयकों को पारित कराना होता है। राज्यसभा के सदस्य राज्यों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं। दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने स्पष्ट कर दिया है कि देश के लोग विधानसभा सभा और लोकसभा में अलग अलग तरीके से मतदान करते हैं। इसलिए जरूरी नहीं है कि जिस पार्टी ने लोकसभा में बहुमत हासिल कर लिया हो, वह राज्यसभा में भी बहुमत हासिल कर ले। वैसे राज्यसभा में प्रत्येक दो साल पर एक तिहाई नये सदस्य चुन कर आते हैं। अब यदि राज्यों में क्षेत्रीय दलों की सरकारे होगी, तो जाहिर है कि राज्य सभा में भी क्षेत्रीय दलों के सांसद ही जीतकर आएंगे। इसलिए लोकसभा में बहुमत पाकर भी सरकार पूरी संसद से अपने मन के मुताबिक कानून बनाने में सफल नहीं हो पाएगी, क्योंकि क्षेत्रीय दलों के दबदबे वाली राज्यसभा से विधेयक पारित करवाना उसके लिए आसान नहीं रहेगा।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की शानदार जीत से बहुत लोगों को आशा बंधी थी कि एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में इसका उभार हो सकता है, लेकिन जिस तरह से यह अंदरूनी कलह की शिकार हो रही है, उसके कारण इस तरह की उम्मीदों पर पानी फिर रहा है। भ्रष्टाचार और बड़े व्यापारिक घरानो के खिलाफ संघर्ष करते हुए यह दल अस्तित्व में आया था। लेकिन जिस तरह की कलह देखने को मिल रही है और जिस तरह से उसका हल निकाला जा रहा है, उससे साफ लग रहा है कि इसकी हसरत एक क्षेत्रीय दल की ही होने वाली है और यह दिल्ली की एक क्षेत्रीय पार्टी बनकर ही रह जाएगी। केजरीवाल भी अपने आपको एक क्षेत्रीय नेता के रूप में ही प्रोजेक्ट कर रहे हैं।
दिल्ली में भाजपा की जो हार हुई है, उससे यह लगता है कि भविष्य में यह पार्टी अपनी पिछले साल के लोकसभा चुनाव वाली जीत को शायद ही दुहरा पाएगी। इस समय भी उसे विधेयक पास करवाने में परेशानी हो रही है। लोकसभा से पारित किया गया विधेयक राज्यसभा में जाकर अटक जाता है। आगे क्या होगा, इसके बारे में सहज अनुमान लगाया जा सकता है। (संवाद)
भारत
राष्ट्रीय पार्टी की सरकार को क्षेत्रीय दलों की चुनौती
राज्यसभा अब पड़ रही है लोकसभा पर भारी
नन्तू बनर्जी - 2015-03-12 17:42
क्या भारत राष्ट्रीय पार्टी की सरकार द्वारा प्रशासित होने के दंभ से आखिरकार मुक्ति पाने की ओर अग्रसर है? यह कोई काल्पनिक दशा मात्र नहीं है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की लोकसभा चुनावों में हुई भारी पराजय के बाद यह सच होता प्रतीत हो रहा है। उसे 543 सदस्यों वाली लोकसभा में मात्र 44 सीटें ही हासिल हो सकी थीं। लोकसभा के अंदर भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है और वह बहुमत में भी है, लेकिन वह देश के कुछ राज्यों में ही सत्ता में है। वह गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, गोवा और झारखंड में ही अपने बूते सत्ता में है। पंजाब, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में वह अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार में है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। चुनाव नतीजे देश की सबसे बड़ी पार्टी के लिए एक बड़े सदमे से कम नहीं है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का भी वहां सूफड़ा साफ हो गया है। उसे मात्र तीन सीटें ही मिलीं।