लेकिन मुख्यमंत्री इस उद्देश्य को पाने के लिए कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी दिखा रहे हैं। कश्मीर के अलगावादी नेता मसरत आलम की रिहाई अपने आप में गलत नहीं, लेकिन उसमें दिखाई गई हड़बड़ी गलत थी। मुख्यमंत्री को रिहाई के पहले अपने सहभागी दल को विश्वास में लेना चाहिए था। विश्वास में नहीं लिए जाने के कारण अनेक किस्म की गलतफहमियां पैदा हुईं और तरह तरह की बयानबाजी हुई। इसके लिए केन्द्र को अंधेरे में रखे जाने की जरूरत नहीं थी।

हड़बड़ी में लिए गए उस निर्णय के कारण भारतीय जनता पार्टी की परेशानी बढ़ गई। उसे पता नहीं चला कि वह कैसे प्रतिक्रिया करे। इसके कारण उसके तरफ से ऐसे बयान आने लगे, जिससे सरकार अस्थिर होती दिखाई पड़ी। केन्द्र सरकार को भी समस्याओं का सामना करना पड़ा। उसे तो पूरा तथ्य ही नहीं पता था। गौरतलब हो कि आलम पर आरोप था कि उसने 2010 के पत्थर फेंको आंदोलन का नेतृत्व किया था, जिसमें एक सौ से भी ज्यादा लोग मारे गए थे।

आलम को रिहा किए जाने के अनेक कारण बताए गए हैं। कहा गया है कि आलम को रिहा किए जाने का फैसला मुफ्ती के मुख्यमंत्री बनने के पहले ही लिया जा चुका था। उस समय प्रदेश में राष्ट्रपति शासन चल रहा था। यानी उस समय कश्मीर में केन्द्र की सरकार ही थी। यह भी बताया गया कि आलम की रिहाई एक न्यायिक प्रक्रिया के तहत की गई थी। उसकी हिरासत की अवधि समाप्त हो गई थी। उस पर कोई नया आरोप भी नहीं लगा था। वैसी हालत में उसे जेल में रखा भी नहीं जा सकता था।

आलम को अब तक 13 बार जेल भेजा जा चुका है। उसके खिलाफ 27 मुकदमे दर्ज किए गए हैं। अपने व्यस्क जीवन के 25 सालों में वह 15 साल जेल में ही बिता चुका है। और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उसने बिना किसी मुकदमे में सजा पाए 15 साल गुजार दिए हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह निर्दोष है। इसका एक ही मतलब है कि वर्तमान परिस्थितियों में उसे दोषी साबित किया जाना कठिन है। जाहिर है कि न्याय व्यवस्था दोषियों को सजा देने में नाकाम हो रही है। जाहिर है कि व्यवस्था में सुधार की जरूरत है। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी, जिससे दोषियों को सजा दिलाई जा सके।

जिस समय भाजपा और पीडीपी की गठबंधन की सरकार सत्ता में आई, उस समय आलम जेल में था। वह पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत जेल में था। उस एक्ट के तहत उसकी सजा पूरी हो गई थी। सजा पूरी होने के बाद 12 दिनों के अंदर उसकी फिर से गिरफ्तारी के आदेश नहीं जारी किए गए थे। इसलिए मुफ्ती के पास विकल्प बहुत सीमित थे। उनके पास एक विकल्प आलम की रिहाई था। वैसा करना कानून सम्मत था। दूसरा विकल्प किसी और आरोप में आलम की गिरफ्तारी के लिए नया आधार तैयार करना था। पहले विकल्प को अपनाने से भाजपा के साथ मुफ्ती का रिश्ता तनावपूर्ण होता था और दूसरे विकल्प अपनाने से संदेश जाता कि मुफ्ती की सरकार केन्द्र की कठपुतली है। इसके कारण प्रदेश भर के लोगों का विश्वास मुफ्ती से समाप्त हो जाता। ऐसी स्थिति में घाटी को सामान्य बनाने का मुफ्ती का एजेंडा पराजित हो जाता।

आलम के बारे में स्थिति स्पष्ट थी। रिहाई आवश्यक थी। लेकिन मृफ्ती को उसके बारे में कम से कम उपमुख्यमंत्री को बता देना चाहिए था। उन्हें यह बताया जाना चाहिए था कि आलम की रिहाई क्यों जरूरी है। उसके साथ ही केन्द्र को भी संदेश पहुंचा दिया जाना चाहिए था।

अब आलम की फिर से गिरफ्तारी की मांग हो रही है। उसकी फिर से गिरफ्तारी से स्थिति सुधरेगी, इसमें शक है। सच तो यह है कि इसके कारण वहां के लोगों का सरकार के प्रति भरोसा और भी कम होगा। इसलिए अच्छा यही होगा कि मुफ्ती को अपने तरीके से काम करने दिया जाय। (संवाद)