उनका एक मंच पर आना एक बड़ी बात थी और उसके परिणाम भी जबर्दस्त रहे। बहुत बड़ा आंदोलन देश भर में हुआ। बाद में वह आंदोलन एक पार्टी में तब्दील हो गया, हालांकि अन्ना और किरण बेदी जैसे अनेक लोग उस पार्टी से दूर ही रहे। पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफलता मिली। पिछले विधानसभा चुनाव में तो उसे ऐसी सफलता मिली, जिसे हम रिकार्ड मेकर सफलता कह सकते हैं। 70 में से 67 विधानसभा सीटों पर आम आदमी पार्टी के ही उम्मीदवार जीते। कांग्रेस को एक सीट भी नहीं मिली और अपने बूते कुछ महीने पहले ही देश भर में पहली बार लोकसभा में बहुमत पाने वाली भारतीय जनता पार्टी को मात्र 3 सीटें ही मिलीं।

पार्टी तो भारी बहुमत से दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीत गई, लेकिन पार्टी के अंदर लोगों की महत्वाकांक्षाएं लहर मारने लगीं। लोगों की परस्पर विराधी विचारधाराएं भी अपना खेल दिखाने लगीं। वे लोग आपस में लड़ने लगे और उनकी लड़ाई से पार्टी में दरार पैदा होने लगी है। यह दुर्भाग्य की बात है कि आम आदमी पार्टी के दो संस्थापक सदस्य पार्टी की राजनैतिक मामलों की समिति से बाहर कर दिए गए हैं।

केजरीवाल के बंगलूरु से वापसी के बाद सुलह की कोशिशें तेज हो गई हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे कोशिशें कामयाब हों और पार्टी में एकता बनी रहे, क्योंकि वर्तमान राजनैतिक माहौल में इस पार्टी का एक रहना देश के हित में है। लोगों ने उसमें विश्वास किया है और उसका एक जनाधार भी है। उसे देश के अन्य हिस्सों में फैलाने की वकालत प्रशांत भूषण कर रहे थे। उन्हें राजनैतिक मामलों की समिति से बाहर किए जाने का एक कारण यह भी है। बाद में राजनैतिक मामलों की समिति ने खुद फैसला किया कि पार्टी को देश के अन्य हिस्सों में फैलाया जाएगा।

पार्टी के निर्माण के समय भी मतभिन्नता थी। केजरीवाल और सिसोदिया को लग रहा था कि अन्ना टाइप के आंदोलन से बात नहीं बनने वाली है, तो उन्होंने पार्टी बनाने का फैसला किया, लेकिन आंदोलन के अंदर के अनेक लोग पार्टी बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। खुद अन्ना इसके खिलाफ थे। इसके बावजूद पार्टी बनी और 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी दिल्ली की सत्ता में भी आ गई। उसके बाद तो अनेक महत्वाकांक्षी लोग पार्टी में आने लगे। आम आदमी की पार्टी में मीरा सान्याल जैसी बैंकर आने लगी।

सत्ता में आने के बाद केजरीवाल अपने आपको सत्तारूढ़ नेता के रूप में समायोजित करने की कोशिश में लग गए और आम आदमी की परिभाषा ही बदलने लगे। उसके बाद लोकसभा चुनाव में वे शामिल हो गए और पूरे देश भर में आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार खड़े कर दिए। उस चुनाव में भारी मात मिली। उसके बाद केजरीवाल और व्यवहारिक हो गए। व्यावहारिकता के तकाजे से उन्होंने 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में टिकट बांटे और उसके कारण प्रशांत भूषण से उनका टकराव और भी बढ़ गया।

आम आदमी पार्टी दावा करती है कि वह अन्य पार्टियों से अलग है, लेकिन उसके दावे कितने सही हैं? आखिरकार उसे भी स्थापित राजनैतिक संस्कृति से समझौता करना पड़ रहा है। केजरीवाल अपने को आदर्शवादी कहते हैं, लेकिन वे खुद व्यक्तिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। लेकिन यदि उन्हें सफल होना है तो उन्हें आम सहमति की राजनीति करनी होगी। (संवाद)