बिहार की राजनीति में आज चार मुख्य राजनैतिक ताकतें हैं। एक ताकत तो खुद नीतीश कुमार हैं, दूसरी ताकत लालू यादव और तीसरी ताकत जीतनराम मांझी है। इन तीन व्यक्ति आधारित राजनैतिक ताकतों के अलावा भारतीय जनता पार्टी चैथी ताकत है। बिहार की राजनैतिक अनिश्चितता का कारण राजनीति के इन चारों खिलाड़ियों के भावी निर्णय को लेकर व्याप्त अनिश्चितता है। लालू और नीतीश घोषित तौर पर कहते हैं कि उनकी पार्टियां एक हो जाएंगी, लेकिन उस और उन दोनों के कदम नहीं बढ़ रहे हैं। सच्चाई यह है कि लालू यादव अपने दल का अस्तित्व दांव पर लगा नहीं सकते, क्योंकि दिल्ली वाले उनके दल का कार्यालय ऐसा करने पर उनके हाथ से निकल सकता है। नीतीश भी नहीं चाहेंगे कि टिकट बांटने की अपनी ताकत को वह किसी और के हवाले कर दें। इन पक्तियों के लेखक ने पहले ही कह दिया था कि बिहार के दोनों दलों का विलय संभव नहीं है। ज्यादा से ज्यादा दोनों दल एक साथ मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ सकते हैं।
लेकिन अब दोनों के बीच मोर्चेबंदी की उम्मीद भी लगातार कम होती जा रही है। लालू यादव नीतीश सरकार का समर्थन करते रहे हैं और करते रहेंगे, लेकिन वे नीतीश के साथ मिलकर चुनाव लड़ेगे इसकी संभावना नही ंके बराबर हो गई है। इसके दो बड़े कारण हैं। एक कारण मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी है। लालू खुद मुख्यमंत्री नहीं बन सकते और अपनी बेटी अथवा बेटे को उपमुख्यमंत्री बनाकर भी खुश हो जाएंगे, लेकिन यदि नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने से उनका यादव जनाधार की कमजोर हो जाएगा, क्योंकि बिहार में नीतीश का यादवों के साथ और यादवों का नीतीश के साथ 36 का आंकड़ा बन गया है, जिसे लालू यादव चाह कर भी नहीं बदल सकते। जाहिर है यदि लालू ने नीतीश को अपना नेता मान लिया, तो यादवों का एक हिस्सा उनको (लालू को) नेता मानने से इनकार कर देगा।
नीतीश के साथ न जाने का दूसरा बड़ा कारण जीतन राम मांझी हैं। लालू ने तो उनका हटाने में भूमिका अपनाई, लेकिन उसे जद(यू) का अंदरूनी मामला मानकर वे दूरी बनाने की कोशिश भी करते रहे हैं। मांझी को हटाने के कारण बिहार के दलित नीतीश के खिलाफ हो गए हैं। मांझी की सभाओं में उमड़ती भीड़ को देखकर लालू जरूर डर रहे होंगे। आज लालू की सभाओं से भी ज्यादा भीड़ मांझी की सभाओं में उमड़ रही है। दलित ही नहीं, पिछड़े वर्गो की कमजोर जातियों की सहानुभूति भी मांझी के साथ है और लालू यादव नहीं चाहेंगे कि नीतीश के साथ जुड़कर दलितों व कमजोर ओबीसी जातियों के बीच अपनी छवि खलनायक की बना लें।
लालू बिहार की राजनीति को समझते हैं और उनको पता है कि यदि वे जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश कर चुनाव लड़ें, तो वह बिहार का सबसे मजबूत समर्थन होगा, क्योंकि तब यादव, मुस्लिम और दलित एक मंच पर खड़े दिखाई देंगे। यादवों को नीतीश से चिढ़ हो सकती है, पर मांझी से नहीं। ये तीनों समुदाय (यादव, मुस्लिम और दलित) बिहार की आबादी के 48 फीसदी हैं। इस समीकरण में लालू के सामने सबसे बड़ी समस्या जीतन राम मांझी का अपना व्यक्तित्व है, जो किसी का रबर स्टंप बनने को तैयार नहीं है और नीतीश की तरह लालू भी अपनी राजनीति में ऐसे लोगों को बर्दाश्त नहीं करते। इसलिए यह कहना कठिन है कि वे मांझी के साथ जाएंगे।
नीतीश कुमार की राजनीति भी अनिश्चय भरी है। उनकी राजनीति मुख्यमंत्री बने रहने की है। वे उस किसी के साथ जा सकते हैं, जो उनको मुख्यमंत्री बनाने को तैयार हो। भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से ही वे मुख्यमंत्री बन सके थे। एक विकल्प उनके पास फिर भाजपा के साथ जुड़ने का है। यह लोगों को विचित्र लग सकता है, लेकिन राजनीति में कुछ भी संभव है, क्योंकि यह पूरी तरह सत्ता का खेल बन गई है और इस खेल में विचारधारा की मौत हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी से संबंध ठीक करने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी।
जहां तक नरेन्द्र मोदी की बात है, तो वे जब रामविलास पासवान को अपना सकते हैं, तो उन्हें नीतीश को अपनाने में क्यों परेशानी होगी। गौरतलब हो कि गोधरा बाद गुजरात में हुए दंगे पर रामविलास ने मोदी के खिलाफ जितनी आग उगली है, उसकी एक चैथाई भी नीतीश ने नहीं उगली होगी। दंगों को मुद्दा बनाकर रामविलास ने मोदी को गुजरात के सीएम से हटाने की मांग करते हुए अटल सरकार से इस्तीफा दे दिया था, जबकि नीतीश सरकार में बने रहे थे।
दिल्ली चुनाव में करारी हार खाने के बाद भारतीय जनता पार्टी बिहार को लेकर चिंतित हो गई है। उत्तर प्रदेश में खोई हुई जमीन पाने के लिए और पश्चिम बंगाल पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए उसे बिहार में पराजय से बचना होगा और इसके लिए वह बिहार में कुर्बानी कर दे, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी के साथ जीतन राम मांझी के रूप में एक और विकल्प है। संकट के समय भाजपा ने मांझी का साथ नहीं दिया और उनके संकट को अपनी राजनीति के लिए भुनाने की कोशिश की। भाजपा मांझी को पसंद नहीं करती, यह उस संकट के दौरान साफ हो गया था, लेकिन राजनीति पसंद या नापसंद से नहींए बल्कि स्वार्थ से चलती है, इसलिए भाजपा कम से कम मांझी के साथ चुनावी समझौता तो कर सकती है। यानी बिहार में कुछ भी हो सकता है। (संवाद)
बिहार की राजनीति पर अनिश्चिय के बादल
कोई नहीं जानता कौन किसके साथ होगा
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-03-26 16:28
बिहार की राजनीति एक दिलचस्प अनिश्चय के दौर में प्रवेश कर गई है। नीतीश कुमार दुबारा मुख्यमंत्री बन गए हैं और इस विधानसभा के शेष कार्यकाल तक उनकी सरकार को कोई खतरा नहीं है, लेकिन क्या विधानसभा चुनाव के बाद किसकी सरकार होगी, यह दावे के साथ आज कोई नहीं कह सकता। चुनाव के बाद की स्थिति की बात तो दूर, चुनाव के पहले क्या राजनैतिक स्थिति बनेगी, इसका दावा भी कोई आज नहीं कर सकता। नीतीश सरकार लालू यादव के नेतृत्व वाले राजद और कांग्रेस के समर्थन से बहुमत में है। दल बदल विरोधी कानून के कारण उनका अपना जनता दल (यू) विधानसभा में पूरी तरह उनके साथ है। जीतन राम मांझी भी खुद को जद(यू) का विधायक कहते हैं और उन्होंने विधानसभा में नीतीश सरकार के विश्वास मत के दौरान सरकार के खिलाफ मत नहीं डाला। वे एक मोर्चा बनाकर अपनी राजनैतिक गतिविधियां चला रहे हैं।