इसी तरह की समस्या इन्दिरा गांधी के सामने भी आई थी। 1977 में उनकी पार्टी हारी थी। उसके बाद उसी साल अगस्त महीने में वह हाथी पर चढकर पटना जिले के बाढ़ थाने के बेलछी गांव पहुंची थी। उस गांव में सामंतों द्वारा दलितों को जिंदा जला देने की घटना घटित हुई थी। इन्दिरा गांधी की बेलछी यात्रा ने इतिहास की दिशा को ही बदल दिया। सोनिया गांधी ने इन्दिरा गांधी के पदचिन्हों पर चलते हुए भूमि अधिग्रहण कानून को मुद्दा बना डाला है और वह देश के दौरे पर निकली हुई है। देखना दिलचस्प होगा कि सोनिया गांधी के इस कदम का क्या नतीजा निकलता है।
यूपीए के पांच साल के कार्यकाल में सोनिया गांधी ने सरकार की नीतियों को लोगों को केन्द्रित करते हुए बनाए रखने की कोशिश की। इसके तहत महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना और उसकी तरह के अन्य कार्यक्रम चलाए गए। यूपीए सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून भी बनाया। उसके बावजूद 2014 में मोदी के जादू के सामने यूपीए के वे लोकप्रियतावादी कदम नाकाफी साबित हुए और कांग्रेस को एक ऐसी हार मिली, जिसकी कल्पना उसके विरोधियों ने भी नहीं की होगी।
इन्दिरा गांधी की बेलछी यात्रा ने न सिर्फ यह साबित किया था कि हार के बावजूद इन्दिरा गांधी बैठी नहीं रहेगी, बल्कि उसके कांग्रेस को फिर से जिन्दगी की राह पर लाने का काम किया और कुछ समय बाद ही देश की यह सबसे पुरानी पार्टी फिर केन्द्र की सत्ता में आ गई।
सोनिया गांधी ने पिछले 20 मार्च को राजस्थान के एक गांव दार्बीजी का दौरा किया। वह गांव कोटा जिले से 35 किलोमीटर पूरब है। एक सप्ताह पहले ही आंधी और बारिश में उस गांव की फसलें तबाह हो गई थीं। सोनिया गांधी ने कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को फोन कर एक आइएस अधिकारी रवि की मौत की सीबीआई जाचं कराने को कहा। इस निर्णय के पहले उन्होंने किसी भी कांग्रेसी नेता से कोई सलाह मशविरा नहीं किया।
12 मार्च को उन्होंने कांग्रेस के सभी सांसदों और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को पार्टी मुख्यालय में आने को कहा और उनके साथ मनमोहन सिंह के निवास तक पैदल मार्च किया। वह मार्च पूर्व प्रधानमंत्री के प्रति अपना समर्थन जताने के लिए था, जिन्हें एक अदालत ने कोयला घोटाले में हाजिर होने के लिए समन किया था।
साोनिया गांधी ने तीन राज्यों की यात्रा भी कर डाली है। अपनी यात्रा में वे किसानों से मिलीं। वे भूमि अधिग्रहण विधेयक के खिलाफ केन्द्र सरकार के साथ आर पार लड़ाई करने की मूड में हैं।
सच कहा जाय तो सोनिया गांधी की लड़ाई इन्दिरा गांधी द्वारा 1977 में लड़ी गई लड़ाई से भी ज्यादा कठिन है। इसका कारण यह है कि उस समय कांग्रेस की स्थिति उतनी खराब नहीं है, जितनी की आज है। उस समय कांग्रेस के 154 सांसद लोकसभा में थे, जबकि आज सिर्फ 44 हैं। वोटों का फीसदी भी उस समय के मुकाबले 15 फीसदी कम है। उस समय इन्दिरा गांधी के साथ संजय गांधी जैसे मजबूत सख्सियत खड़े थे, लेकिन इस समय राहुल गांधी राजनीति में अपनी भूमिका भी तय नहीं कर पा रहे हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इन्दिरा की राह पर चलकर सोनिया गांधी कांग्रेस में जान फूंक पाती है या नहीं। (संवाद)
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सोनिया ने संभाल ली है कमान
इन्दिरा की राह पर चलने की कोशिश
हरिहर स्वरूप - 2015-04-06 17:15
इस समय सोनिया गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती कांग्रेस को एक बनाए रखने की है। पिछले साल लोकसभा के हुए चुनाव में शर्मनाक पराजय का सामना करने के बाद कांग्रेस के अंदर से नेतृत्व के खिलाफ विद्रोही स्वर लगातार उठ रहे हैं और इन स्वरों के आने वाले दिनों में और भी तेज होने की आशंका भी बनी हुई है। इसके कारण कांग्रेस की एकजुटता पर भी खतरा पैदा हो सकता है। इसलिए सोनिया गांधी के लिए कुछ ऐसा करना जरूरी हो गया है कि पार्टी और पार्टी नेतृत्व में कांग्रेस नेताओं और कार्यकत्र्ताओं का विश्वास बना रहे। सोनिया गांधी इस चुनौती को समझती है और उसका सामना भी सही तरीके से कर रही है।