उधर किसानों को पता ही नहीं चल पा रहा है कि प्रस्तावित विधेयक में उनके खिलाफ क्या है और पक्ष में क्या है। उन्हें यह पता नहीं कि इससे उनको क्या नुकसान होगा और क्या फायदा होगा। सौ साल से भी पुराने भूमि अधिग्रहण कानून को 2013 में संशोधित किया गया था। उस कानून के तहत जमीन को कोई अधिग्रहण हुआ ही नहीं। उस कानून के तहत उद्यमियों को अपनी औद्योगिक ईकाइयों के लिए खुद जमीन का अधिग्रहण करना था और यह काम उनके लिए आसान नहीं था। यही कारण है कि 2013 के कानून के कारण इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास दिवा स्वप्न दिखाई पड़ने लगा।
मोदी सरकार आने के बाद एक नये भूमि अधिग्रहण कानून तैयार करने की कसरत शुरू हुई। इसके लिए विधेयक तैयार किया गया, लेकिन अभी तक यह संसद से पारित नहीं हो सका है और इसे प्रभावी करने के लिए सरकार अध्यादेश का सहारा लेती है। इस नये विधेयक से उद्यमियों को नई उम्मीद बनी है। इसमें अधिग्रहण के छह मामले में किसानों की सहमति का प्रावधान हटा दिया गया है। इन छह श्रेणियों के लिए जमीन अधिग्रहण के लिए किसानों को दिया जाने वाला मुआवजा दुगना कर दिया गया है। लेकिन क्या किसान इस तथ्य को जानते हैं? क्या किसानों को पता है कि सिर्फ खेती पर उनकी निर्भरता उनकी गरीबी को ही बढ़ाती रहेगी?
तर्क तो यही कहता है कि मौजूदा विधेयक में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके कारण भाजपा और किसानों के बीच रिश्ता खराब हो। इसके कारण किसानों और जमीन खरीदने वाले उद्यमियों के बीच भी किसी प्रकार के संघर्ष की आशंका नहीं है। लेकिन राजनीतिज्ञों ने इस मससे को उलझा कर रख दिया है।
आज देश की आबादी का 70 फीसदी अपनी आय के लिए खेती पर निर्भर करती है। खेतों का 40 फीसदी ही सिंचाई की सुविधा से युक्त है। इसके कारण खेतों का एक बड़ा हिस्सा मानसून की कृपा पर निर्भर है। खेती के लिए नई टेक्नालाॅजी का इस्तेमाल कम ही हो रहा है। किसान सरकारी सब्सिडी पर निर्भर हो गए हैं।
प्रत्येक नई पीढ़ी के बाद खेत का आकार घटता जा रहा है, क्योंकि परिवार बढ़ने के साथ खेतों का भी बंटवारा हो जाता है। छोटे और मध्यम किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके कारण खेती के मशीनीकरण का काम कठिन हो रहा है। आधुनिक मशीनरी का इस्तेमाल बड़े जोतों में ही किया जा सकता है। इसलिए अब खेती फायदे की चीज नहीं रह गई है। मजबूरी में या पारिवारिक परंपरा के कारण किसान खेती किए जा रहे हैं।
राष्ट्रीय आय बढ़ने के अनुपात मंे ही यदि उद्योग और मैन्युफैक्चरिंग का विकास होता, तो खेती में काम करने वाले लोग उनकी तरफ खिसकते जाते, लेकिन उद्योग का भी पर्याप्त विकास नहीं हो पा रहा है, जिसके कारण लोगों की निर्भरता खेती पर ही बनी हुई है। उद्योगों के विकास के लिए मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहिए और उसके लिए जमीन चाहिए। अब जमीन आएगी कहां से?
पश्चिम बंगाल के सिंगूर का उदाहरण सामने है। यदि टाटा को नैनो कार का प्लांट लगाने दिया जाता, तो लोग खेती से हटकर उसमें काम पाते। इसके कारण उन्हें काम का नया अवसर प्राप्त होता और खेती में लगी हुई सरप्लस जनशक्ति वहां से हटती। पर वैसा नहीं हुआ और परिणाम सामने है। (संवाद)
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भूमि अधिग्रहण कानून में है सकारात्मक पहलू
सुब्रत मजूमदार - 2015-04-11 15:39
मोदी सरकार के मेक इन इंडिया अभियान को नये भूमि अधिग्रहण कानून का ग्रहण लग गया है। इसके कारण वह अभियान शुरू होने की स्थिति में भी दिखाई नहीं दे रहा है। प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून के लिए पेश किए गए विधेयक को संसद से पारित करवाना सरकार के लिए लगभग असंभव दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि राज्यसभा में सत्तारूढ़ पक्ष को बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है।