यानी 15 अप्रैल की बैठक में सिर्फ एक नई बात सामने आई और वह यह कि संयुक्त दल में मुलायम सिंह यादव अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि पार्टी सुप्रीमो भी होंगे और टिकट का वितरण उनके दस्तखत से ही होगा। गौरतलब है कि टिकट बंटवारे का निर्णय संसदीय बोर्ड द्वारा होता है और अध्यक्ष संसदीय बोर्ड की हैसियत से टिकट वितरण के दस्तावेजों पर दस्तखत करता है। यानी संभावित पार्टी में मुलायम सिंह के नेतृत्व को पूरी तरह स्वीकार कर लिये जाने पर सहमति बन गई है। पर असली सवाल अभी भी वहीं है कि यदि पार्टियों का आपस में विलय हो गया है, तो जिसमें विलय हुआ है, उसकी पहचान क्या है?

इस सवाल का कोई जवाब नहीं है दलों के नेताओं के पास और जवाब ढू्रढ़ने का काम मुलायम सिंह यादव और घटक दलो के अध्यक्षों को दे दिया गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि दल का नाम चुनने और निशान पर सहमति बनाने में इतना समय क्यों लग रहा है? इस सवाल का कोई जवाब दलों के नेताओं के पास नहीं है और इसके कारण ही शक होता है कि क्या वास्तव में यह विलय हो भी पाएगा या सिर्फ विलय की घोषणाएं ही होती रहेंगी?

विलय के रास्ते मे सबसे बड़ी बाधा यह है कि दलों के नेताओं में कोई भी किसी को पसंद नहीं करता। लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार और देवेगौड़ा विलय की कसरत कर रहे दलों के मुख्य नेता हैं। इनमें से कोई एक भी अन्य चार को पसंद नहीं करता। लालू यादव और मुलायम सिंह यादव भले ही आज सामाजिक रिश्तेदारी के बंधन में बंध गए हो, लेकिन मुलायम सिंह यादव इस बात को नहीं भूल सकते कि 1997 में देवेगौड़ा सरकार के पतन के बाद जब उनके (मुलायम) के प्रधानमंत्री बनने पर आम राय बन रही थी, लालू यादव ने वीटो लगाकर उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था और प्रधानमंत्री तब इन्द्र कुमार गुजराल बन गए थे। उसी तरह देवेगौड़ा इस बात को नहीं भूल सकते कि सीताराम केसरी द्वारा उनकी सरकार से समर्थन वापस लेने और उनकी सरकार के गिरने के बाद सबसे पहले लालू यादव ने उनका साथ छोड़ा था और दुबारा प्रधानमंत्री बनने के उनके प्रयासों में पलीता लगा दिया था।

नीतीश और लालू के बीच भी 36 का आंकड़ा रहा है और यदि वे आपस में आज हाथ मिलाते दिख रहे हैं, तो इसका कारण यह है कि दोनो का अपना अपना स्वार्थ वैसा करने में ही सधता दिख रहा है। नीतीश कुमार को फिर बिहार की सत्ता हासिल करनी है और लालू यादव को अपने बेटे और बेटियो को बिहार की राजनीति में स्थापित करनी है। नीतीश के साथ मिलकर वे वैसा करने को सोच रहे हैं, लेकिन डर तो उन्हें इस बात का होगा ही कि कहीं ताकतवर होकर नीतीश उनकी उस चाह पर पानी न फेर दें, क्योंकि नीतीश खुद परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति नहीं करते, तो फिर वे किसी और के वंशवाद अथवा परिवारवाद को जारी रखने का जरिया क्यों बनना चाहेगे?

उधर मुलायम सिंह की अपनी अलग समस्या है। वे समाजवादी पार्टी को अपनी इच्छा के अनुसार चलाते रहे हैं। उनकी इच्छा के बिना पार्टी में कुछ भी नहीं होता और पार्टी के सुप्रीमों के रूप में वे अपने परिवार को बढ़ावा देते रहे हैं। नई पार्टी को भी वे उसी तरह चलाते रहना चाहेंगे। अपनी समाजवादी पार्टी में उनके किसी निर्णय के ऊपर कोई सवाल उठाए, वे इसे पसंद नहीं करते। जाहिर है वे चाहेंगे कि नई पार्टी में भी कोई उनके ऊपर सवाल नहीं उठाए। लेकिन क्या एक साथ आए नेता मुलायम की हां मंे हां मिलाने को तैयार होंगे? वे वैसा करने के लिए तैयार भी हो जाएंगे, यदि उनके स्वार्थ सधते रहें, पर मुलायम के साथ उनके स्वार्थाें का संघर्ष नहीं होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

नीतीश और लालू के बीच के विरोधाभास के कारण नये दल के गठन में समस्या तो आ ही रही है, समस्या मुलायम के परिवार की ओर से भी आ रही है। उनका परिवार समाजवादी पार्टी को अपनी जायदाद की तरह इस्तेमाल करता है। परिवार का डर है कि नई पार्टी में परिवार की स्थिति वह नहीं रह जाएगी। इसलिए परिवार नया झमेला मोल नहीं लेना चाहता। मुलायम सिंह के भाई राम गोपाल यादव राज्य सभा में समाजवादी पार्टी संसदीय दल के नेता हैं। पार्टियों के विलय के बाद वे राज्यसभा में नये दल का नेता नहीं रह पाएंगे। इसलिए उनकी ओर से विलय के प्रति असंतोष के स्वर उठ रहे हैं। अभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के साथ साथ रामगोपाल यादव की भी तूती बोलती है, लेकिन संयुक्त पार्टी में उनका वह महत्व नहीं रह पाएगा।

यह समस्या सिर्फ रामगोपाल यादव की ही नहीं है, बल्कि मुलायम के परिवार के अन्य सदस्य भी नहीं चाहेंगे कि परिवार के बाहर का कोई व्यक्ति आकर उनपर सवाल खड़ा करे। खुद अखिलेश यादव को यह विलय पसंद नहीं है, क्योंकि आज पार्टी मे उनकी स्थिति दूसरे नंबर के नेता की है। वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष भी हैं, लेकिन संयुक्त पार्टी में नेतओं की भीड़ होगी और लगभग सभी नेता अपने आपको अखिलेश यादव से सीनियर ही समझेंगे। लिहाजा, पार्टी के विलय की घोषणा करना जितना आसान हे, पार्टी के विलय का संभव होना उतना ही मुश्किल है। (संवाद)