लेकिन वह महाविलय नहीं, बल्कि महाछलावा था। उनके पास उस घोषणा के पहले इतने समय थे कि पार्टी के नाम, निशान और झंडे सबके बारे में निर्णय लिए जा सकते थे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जनता दल का विभाजन नाम, निशान और झंडे के कारण होता ही नहीं था, बल्कि विभाजन का कारण नेताओं का व्यक्तिगत स्वार्थ होता था और जब एक नेता दूसरे के वर्चस्व को स्वीकार करने से इनकार करता था या एक नेता दूसरे को अहमियत देना बंद करता था, तब पार्टी टूट जाती थी और एक नई पार्टी का गठन हो जाता था। मुलायम सिंह यादव को लगा कि वीपी सिंह उन्हें महत्व नहीं दे रहे और उनके साथ रहने से उनकी अपनी राजनीति कमजोर हो जाएगी, तो मुलायम जनता दल से अलग हो गए। पहलं वे देवीलाल और चंद्रशेखर के साथ समाजवादी जनता पार्टी नाम के दल में थे। लेकिन जब उन्हें लगा कि चन्द्रशेखर और देवीलाल पर तो आरक्षण विरोधी होने का ठप्पा लगा हुआ है, तो उन्होंने अपनी अलग से समाजवादी पार्टी बना ली। उसी तरह नीतीश कुमार को जब लालू यादव ने तरजीह देेना बंद कर दिया, तो नीतीश ने अलग होकर समता पार्टी बना ली थी। अध्यक्ष के चुनाव में जब शरद यादव लालू पर भारी पड़ रहे थे, तो लालू ने जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल बना लिया था। जनता दल जइ 1999 में भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन कर रहा था, तो देवेगौड़ा ने दल को ही तोड़ डाला और फिर जनता दल नाम की पार्टी ही समाप्त हो गई। उस टूट से एक जनता दल(यू) बना और दूसरा जनता दल(एस) बना। उधर हरियाणा में देवीलाल ने समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर एक अलग दल बना लिया। नीतीश की समता पार्टी का जनता दल(यू) में विलय हो गया।

यदि हम जनता दल की टूट के इतिहास को देखें तो कोई भी टूट पार्टी के नाम, निशान और झंडे पर असहमति के कारण नहीं हुई थी। टूट के पीछे सिर्फ नेताओं के अहम की टकराहट और उनका स्वार्थ था। नेताओं के निजी स्वार्थ की जिससे क्षति होती थी, उससे वे दूर जाते थे और जब कभी उनका स्वार्थ पूरा होता दिखाई देता था, वे नजदीकी बनाने लगते थे। इस क्रम में सभी नेता एक दूसरे को पूरी तरह जान गए हैं। किनका कौन सा स्वार्थ है- एक दूसरे के बारे में सभी जानते हैं और सभी नेताओं को पता है कि दूसरे नेता की प्रतिबद्धता क्या और राजनीति क्या है। किसी के बारे में किसी को कोई भ्रम नहीं है।

नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही इन नेताओं के राजनैतिक भविष्य पर खतरा पैदा हो गया है। पिछले लोकसभा चुनाव में सबकी पार्टियों की हार हुई। बिहार में लालू और नीतीश की पार्टी धराशई हो गई। नीतीश की पार्टी के सिर्फ दो उम्मीदवार ही जीते। जीत और वोट पाने के मामले में लालू की स्थिति बेहतर थी, लेकिन उनकी बेटी और पत्नी चुनाव हार गईं। हरियाणा में चैटाला का इंडियन नेशनल लोकदल बुरी तरह हारा। बाद मंे हुए विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के हाथों उसकी दुर्गति हो गई। उधर कर्नाटक मे देवेगौड़ा की पार्टी का भी बुरा हाल था। उत्तर प्रदेश में मुलायम की पार्टी भी चुनाव हारी, लेकिन मुलायम परिवार के सभी सदस्य चुनाव जीत गए। इसके कारण इन पराजित दलों में सबसे बेहतर स्थिति मुलायम की ही पार्टी की थी। उसकी उत्तर प्रदेश में सरकार भी है। मुलायम घटक दलों के नेताओं में सबसे वरिष्ठ भी हैं। इसलिए फटाफट उनको नेता मानकर अन्य सभी पराजित नेताओं ने उस विलय की प्रक्रिया की शुरुआत कर दी, जिसे पूरा होना ही नहीं था, क्योंकि इसके द्वारा सभी नेता अपने राजनैतिक कैरियर की रक्षा की कोशिश कर रहे थे और ऐसा करते समय अन्य किसी के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। मुलायम सिंह यादव को वे एक सांकेतिक प्रमुख बनाना चाह रहे थे। भारतीय जनता पार्टी से वास्तव में राजनैतिक लड़ाई लड़ने का उनका कोई इरादा नहीं था, बस भाजपा और नरेन्द्र मोदी की चुनौतियों के सामने अपने आपको राजनीति में बनाए रखना ही उनका उद्देश्य था, लेकिन ऐसा करते समय कोई कुछ भी त्याग करने को तैयार नहीं था।

अब जब विलय की गाड़ी थम गई है और समाजवादी पार्टी की ओर से कह दिया गया है कि बिहार चुनाव के बाद ही नई पार्टी बनने की कोई संभावना है, तो विलय की बातचीत पर भी विराम लग गया है। अब लालू भी सपा की बात से सहमत हैं और बात ज्यादा से ज्यादा बिहार विधानसभा में नीतीश और लालू की पार्टी के बीच गठबंधन की ही हो सकती है। इस तरह का गठबंधन वे दोनों विधानसभाओं के कुछ उपचुनाव में कर चुके हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिली है।

विलय की विफलता के बाद अब गठबंधन ही एकमात्र विकल्प रह गया है। लेकिन क्या गठबंधन हो सकेगा या उसका भी वहीं हश्र होगा, तो विलय का हुआ? इसका जवाब तो विधानसभा चुनाव के ठीक पहले ही मिलेगा, लेकिन इतना कहा जा सकता है कि वह भी आसान नहीं होगा। (संवाद)