लेकिन एक मजबूत राजनैतिक नेतृत्व की कमी देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी हस्ती बनने से रोक रहा था। नरेन्द्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री बनने और पूर्ण बहुमत की सरकार का मुखिया होने के कारण भारत की यह कमी पूरी हो गई है। कहते हैं कि किसी भी देश की विदेश नीति उसकी घरेलू नीतियों का ही अंतरराष्ट्रीय विस्तार होता है। इसी तर्क से ठोस घरेलू नीतियां विदेश नीतियों को भी ठोस आकार बना देती हैं।
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने एक साल के अंदर ही 18 देशों की यात्रा कर ली है और इन यात्राओं को भारत के दृष्टिकोण से सफल ही माना जा सकता है। नरेन्द्र मोदी की विदेश यात्राओं का दुहरा उद्देश्य है। एक उद्देश्य तो विदेशों में भारत की उपस्थिति को मजबूत रूप देना है और उसके तहत वे विदेशों में रह रहे अनिवासी भारतीयों के जमावड़े को संबोधित करते हैं और दूसरा उद्देश्य भारत के लिए विदेशी निवेश आकर्षित करना है। ’’ मेक इन इंडिया’’ की उनकी महत्वाकांक्षी योजना को पूरा होने के लिए विदेश की उनकी यात्राएं काफी महत्वपूर्ण हैं। भारत में मानव संसाधनों की अथाह उपलब्धता है और इन संसाधनों की गुणवत्ता भी लगातार बढ़ती जा रही है। ज्यादा उपलब्धता के कारण यहां श्रम सस्ता भी है। इसलिए दुनिया के देशों के लिए भारत मैन्युफैक्चरिंग का एक बहुत बड़ा स्थल बन सकता है। यह विश्व के आर्थिक विकास के लिए फायदेमंद तो है ही, भारत का हित भी इसी में है।
भारत की राष्ट्रीय आय की संरचना इसका एक ऐसा स्वरूप पेश करती है, जो बहुत सराहनीय नहीं हैं। कृषि पर देश की कुल 60 फीसदी आबादी निर्भर करती है और इसका राष्ट्रीय आय में योगदान मात्र 15 फीसदी ही है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से भी आय 15 फीसदी से कुछ ही ज्यादा है और दो तिहाई से ज्यादा आय सर्विस सेक्टर होती है। भारत की गरीबी और बदहाली का सबसे बड़ा कारण यहां के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का पिछड़ापन है, जिसके कारण वह कृषि सेक्टर में लगी श्रमशक्ति को अपनी ओर खींच नहीं पा रहा है और खेती में लगे लोगों की बदहाली बढ़ती जा रही है। जाहिर है मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढ़ावा देकर ही खेती पर से लोगों का दबाव घटाया जा सकता है और खेती में लगे शेष लोगों को खुशहाल बनाया जा सकता है।
और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को बढावा देने के लिए ही मोदी विदेशियों को भारत में अपनी उत्पादन इकाइयों को खोलने का आमंत्रण दे रहे हैं। विदेशी उत्पादकों को आकर्षित करने के लिए आर्थिक नीतियों में भी बदलाव लाया जा रहा है। सच कहा जाय, तो देश की आर्थिक नीतियों को विदेशी आर्थिक राजनय के अनुकूल बनाया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण कानून में प्रस्तावित बदलाव और उस बदलाव के प्रति सरकार की जिद को उसके आर्थिक राजनय की पृष्ठभूमि में ही देखा जाना चाहिए।
विश्व की अर्थव्यवस्था में एशिया का महत्व बढ़ता जा रहा है। कहा जाता है कि 19वीं सदी यूरोप का था और 20वीं अमेरिका का, तो 21वीं सदी एशिया का होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस तथ्य को बार बार रेखांकित कर रहे हैं और एशिया के वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्था में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका सुनिश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं। इसके तहत उन्होंने ’’पूरब की ओर देखो’’ (लुक इस्ट) की नीति अपना रखी है और एशियाई देशों के साथ अपने आर्थिक संबंधों को और भी प्रगाढ़ करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसा करने में वे दक्षिण एशिया के देशों को भी अपने साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं।
अब शीतयुद्ध नहीं चल रहा और न ही कोई गुटनिरपेक्ष आंदोलन है, फिर भी एक संप्रभु राष्ट्र को अपनी आर्थिक राजनैतिक संप्रभुता की लगातार रक्षा के लिए अनेक प्रकार के संतृलन बनाने पड़ते हैं, ताकि कोई विदेशी ताकत उसे अपने हिसाब से अपनी अंगुलियों पर नचा न सके। इसके लिए जरूरी है कि किसी एक देश पर ज्यादा निर्भर नहीं रहा जाय। कहावत है कि सारे अंडे एक टोकरी में नहीं रखे जाने चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आर्थिक कूटनीति का यह एक बेसिक फार्मूला है और इसके कारण वे एक देश से संबंध को बनाने के लिए दूसरे देशों की ओर नहीं ताकते और सबको अलग अलग खांचे में रखकर देखते हैं। उनकी जापान यात्रा हो या चीन यात्रा, उनकी अमेरिकी यात्रा हो या यूरोप यात्रा या आस्ट्रेलिया यात्रा, वे सभी जगह जाकर सबसे भारत के आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को और भी मजबूत करने के लिए सहमतियों पर हस्ताक्षर को संरक्षण प्रदान कर रहे हैं। भारत में निवेश के लाखों करोड़ रुपयों के निवेश की सहमतियों पर हस्ताक्षर हो रहे हैं। अब ये सहमतियां जमीन पर कितना उतरती हैं और कितना सिर्फ सहमति के स्तर पर रहकर ही अपना दम तोड़ देती हैं, इसका पता तो कुछ समय बाद लगेगा, लेकिन जिस तेजी के साथ इन सहमतियों पर हस्ताक्षर हो रहे हैं, वह अपने आपमें एक रिकाॅर्ड है।
आर्थिक राजनय की सफलता के लिए यह जरूरी होता है कि कोई देश दूसरे देशों पर आथिक रूप से पूरी तरह निर्भर न हो, बल्कि दूसरे देशों को भी अपने ऊपर निर्भर बना ले। इसके बाद ही किसी देश की आर्थिक ताकत बढ़ती है और तब उसकी बात अन्य देश भी गंभीरता से सुनते हैं और मानते भी हैं। वह आर्थिक ताकत पाने के लिए भारत को अपनी विकास दर और बढ़ानी होगी और अपने बाजार को और भी आकर्षक बनाना होगा। और इसके लिए देश की घरेलू नीतियों के स्तर पर भी बहुत कुछ करना होगा। (संवाद)
भारत
मोदी सरकार का आर्थिक राजनय
एक बड़ी ताकत के रूप में उभर रहा है भारत
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-05-30 15:18
यदि नरेन्द्र मोदी सरकार किसी मोर्चे पर सबसे ज्यादा सफल रही है, तो वह आर्थिक राजनय का ही मोर्चा है। सोवियत संघ के पतन के बाद साम्यवादी सोवियत और पूंजीवादी देशों के बीच चल रहा शीतयुद्ध एकाएक समाप्त हो गया और उसी के साथ गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने भी दल तोड़ दिया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन के नेता के रूप में भारत की दुनिया में एक विशेष पहचान थी, शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ उसकी वह पहचान भी समाप्त हो गई थी। जाहिर है भारत अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी भूमिका को सिकुड़ता हुआ देख रहा था, लेकिन आर्थिक विकास दर की वृद्धि और एक बड़े आधुनिक बाजार के रूप में उभरने के साथ साथ भारत अपनी एक नई पहचान पाने के लिए इंतजार कर रहा था।