नरेन्द्र मोदी खुद पिछड़े वर्ग से हैं। उनका संबंध परंपरागत तेल उत्पादक जाति से है, जो एक को छोड़कर देश के सभी राज्यों मे ओबीसी श्रेणी में है। हिमाचल प्रदेश में तो उनकी जाति अनुसूचित जाति है। लेकिन राजनीति में उनका उत्थान जाति के कारण नहीं हुआ है। आप कह सकते हैं कि राजनीति में उनका यह सफर जाति व्यवस्था से प्रेरित राजनीति के कारण नहीं बल्कि दलीय व्यवस्था से प्रेरित राजनीति के कारण उल्हें मुख्यमंत्री के पद तक ले गया। राष्ट्रीय राजनीति में उनका सितारा हिन्दुत्व की राजनीति के कारण चमका। उनकी भारतीय जनता पार्टी हिन्दुत्व की राजनीति करती है और अपनी पार्टी के अन्दर उनकी लोकप्रियता उनके हिन्दुत्ववादी चेहरे के कारण की बढी। भाजपा विरोधियों ने नरेन्द्र मोदी को भाजपा के सबसे बड़े हिन्दुत्ववादी चेहरे के रूप में पेश किया। यह तो उनके खिलाफ नकारात्मक प्रचार के लिए किया गया था, लेकिन इसके कारण भाजपा और संघ के अन्य संगठनों में नरेन्द्र मोदी अपने आप सबसे ज्यादा लोकप्रिय होते चले गए। इसमें उनकी जाति की पृष्ठभूमि का कोई योगदान नहीं था और उन्होंने कभी जाति राजनीति की ही नहीं थी। भाजपा के अंदर कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे नेता अपनी ओबीसी पहचान रखते थे, लेकिन मोदी की यह पहचान कभी नहीं थी, हालांकि वे ओबीसी से ही थी।

लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय जनता पार्टी को बहुमत और उसके मोर्चे को भारी बहुमत नरेन्द्र मोदी की ओबीसी पहचान के कारण ही मिला। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में भाजपा को मिली भारी सफलता के कारण ही भाजपा बहुमत हासिल कर सकी थी। जाहिर है, यदि ओबीसी ने मोदी को यदि मत दिया हो, तो उनकी उनसे कुछ अपेक्षा रही होगी। क्या पिछले एक साल में यह अपेक्षा पूरी हुई?

तो सबसे पहली बात तो यह है कि उनके समर्थक ओबीसी या दलित मतदाताओं की उनसे कोई जातिवादी अपेक्षा ही नहीं थी। जाति के आधार पर किसी मांग को पूरा करने या अपनी तरफ से किसी प्रकार का जातीय वायदा नरेन्द्र मोदी ने किया ही नहीं था। उनका नारा था सबका साथ, सबका विकास। वाराणसी की पड़ोसी सीट मिर्जापुर के एक चुनावी भाषण में वहां की उम्मीदवार अनुप्रिया पटेल ने बार बार सामाजिक न्याय का जिक्र किया और मतदाताओं को सामाजिक न्याय के लिए उन्हें और भाजपा के उम्मीदवारों को समर्थन करने को कहा। मंच पर उस समय नरेन्द्र मोदी भी थे। अपने भाषण में उन्होंने साफ साफ कहा कि चुनाव में उनका सिर्फ एक ही एजेंडा है और वह है विकास। विकास के अलावा उनका कोई एजेंडा ही नहीं है। जाहिर है, वह यह संदेश देना चाह रहे थे कि लालू और मुलायम की तरह उन्हें सामाजिक न्याय के नाम से की जाने वाली जाति की राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाय, हालांकि वे खुद भी ओबीसी हैं।

जाहिर है, यदि जाति से संबंधित कोई वायदा ही नहीं था, तो फिर कोई मोदी सरकार से इस मोर्चे पर किसी तरह का उम्मीद कैसे कर सकता है? लेकिन यह कहना गलत होगा कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने से देश की जाति व्यवस्था पर असर पड़ा ही नहीं है। सच कहा जाय, तो नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने अपने आप में जाति व्यवस्था का कमजोर होना है। वे देश के पहले और इकलौते ओबीसी प्रधानमंत्री हैं। ओबीसी में भी वे एक ऐसी जाति से आते हैं, जिसका सामाजिक स्तर बहुत ही निम्न रहा है। और उनकी जाति का व्यक्ति तो कम से कम जातिवादी राजनीति करके देश का प्रधानमंत्री क्या, किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री तक नहीं बन सकता, क्योंकि जातिवादी राजनीति में उसी ओबीसी अथवा दलित जाति का व्यक्ति आगे बढ़ सकता है जिसकी जाति की आबादी बहुत ज्यादा हो, जो संपन्न हो और जो राजनैतिक रूप से काफी संगठित हो।

पिछले 15 साल से देश की जातिवादी राजनीति पर इन्हीं जातियों का बोलबाला रहा है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कारण ओबीसी और दलित नेताओं की पकड़ इस राजनीति पर कमजोर पड़ गई है। इसके कारण मायावती का भविष्य अनिश्चित हो गया है। बिहार के लालू और नीतीश भी अपनी राजनीति बचाने के लिए संघर्ष करते दिखाई पड़ रहे हैं। यह मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कारण हुआ है। नीतीश ने बिहार में जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया। उन्हें वैसा करना पड़ा, क्योंकि नरेन्द्र मोदी की जीत हुई थी और ओबीसी का एक बडा वर्ग उनके कारण भाजपा की ओर खिसक गया था। इसलिए मांझी का सीएम बनना नरेन्द्र मोदी के पीएम बनने का सीधा परिणाम था, भले ही उन्हें सीएम बनाने का निर्णय नीतीश ने लिया हो। बाद में मांझी और नीतीश में तालमेल बिगड़ गया और मांझी मुख्यमंत्री पद से हटा दिए गए, लेकिन उसके कारण बिहार के दलितों में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई और उनकी जागरूकता बढ़ी। निश्चय ही जाति व्यवस्था वहां कमजोर हुई। यह मोदी सरकार के पहले साल की जाति व्यवस्था के मोर्चे पर उपलब्धियां हैं।

नरेन्द्र मोदी उस राजनैतिक पृष्ठभूमि से आते हैं, जिसके अनुसार हिन्दुत्व की पहचान को गहरा कर जातीय विषमता और भेदभाव को कम और समाप्त करने का प्रयास है। जाति व्यवस्था से उपजी समस्या के समाधान का यह मौन रूप है। यही कारण है कि इस मसले पर मोदी सरकरा मुखर नहीं, हालांकि जाट और गुर्जर आरक्षण के लिए होने वाले आंदोलनो का वह सामना कर रही है। सरकार का जोर विकास पर है। विकास के साथ आधुनिकता आती है और सामंती मूल्य टूटते हैं। सामंती मूल्य टूटने के साथ जाति भी कमजोर होती है। मोदी सरकार के पहले साल में जातियों की सामाजिक गतिशीलता का अहसास जातिवादी नेताओं की बेचैनी में किया जा सकता है। (संवाद)