राहुल गांधी एक के बाद एक मुद्दों से जुड़ रहे हैं। वे मुद्दे उठाते नहीं, बल्कि उनसे जुड़ते हैं। कभी वे उन किसानों के पास जा धमकते हैं, जो जमीन खोने के समस्या का सामना कर रहे हैं, तो कभी वे उन फ्लैट मालिकों के साथ खड़े हो जाते हैं, जो बिल्डरो द्वारा सताए गए हैं। उनके साथ खड़े होकर राहुल मोदी सरकार पर एक ऐसे विधेयक को लाने का आरोप लगाते हैं, जिससे बिल्डरों के हितों की रक्षा होती है।
फ्लैट मालिको को छोड़कर एक बार फिर राहुल गांधी उड़ान भरते हैं और नेट का इस्तेमाल करने वाले उन लोगों के साथ खड़े हो जाते हैं, जो नेट निरपेक्षता के अभियान के साथ जुड़े हैं। उतना से उन्हें संतोष नहीं होता है, तो वे उन मछुआरों के पक्ष में जा खड़े होते हैं, जिनके मछली पकड़ने पर सरकार ने मानसून के दौरान रोक लगा रखी है।
यानी जहां कहीं भी राहुल को कोई समस्याग्रस्त समूह दिखाई पड़ता है, वे वहां पहुंच जाते हैं और उनके मसले को उठाते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार पर एक से बढ़कर एक आरोप लगाने लगते है। उनकी समस्याओं के लिए वे मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराते हैं और खुद उस समस्याग्रत समूह के अधिकारों का चैंपियन होने का तगमा अपने गले में डाल लेते हैं।
भारत एक बहुत बड़ा देश है। यहां समस्याओं की कोई कमी नहीं। पिछड़ेपन के कारण वैसे ही देश में अनेक समस्याएं हैं और जो पिछड़े नहीं हैं, उनके सामने भी नित्य नई नई समस्याएं पैदा होती रहती हैं। इसलिए राहुल गांधी के पास जुड़ने के लिए समस्याओं की कोई कमी नहीं हैं। उनके पास अवसर ही अवसर हैं, जिनका इस्तेमाल कर वे अपने खोए हुए उन सालों की कसर पूरी कर सकते हैं, जब वे कुछ कुर सकते थे, पर करने के लिए आगे नहीं आ सके। वे अपना समय आराम और विलासिता में बिताते रहे।
अब राहुल में नये जोश का संचार हुआ है और वे कुछ करना चाहते हैं। वे अपने आपको देश के एक लोकप्रिय नेता के रूप में देखना चाहते हैं और इसके लिए उन्होंने अपनी सक्रियता काफी बढ़ा दी है और एक के बाद एक समस्याग्रस्त लोगों के साथ अपने आपको खड़ा करके अपने को जन नेता साबित करने में लगे हुए हैं।
पर सवाल यह है कि क्या एक बड़ी पार्टी के बड़े नेता के लिए इतना ही काफी है कि वह लोगों की समस्याओ के पीछे एक के बाद एक भागता रहे? और वैसा करने के क्रम में वह उन समस्याओं को समझने की कोशिश भी नहीं करे? राहुल गांधी यही कर रहे हैं। जिन समस्याओं को उठाकर वे जनता का मसीहा बनने की कोशिश कर रहे हैं, उन समस्याओं की उन्हें समझ ही नहीं है। और सबसे खराब बात यह है कि राहुल उनकी समस्याओं को समझने की कोशिश भी नहीं कर रहे हैं।
सच यह है कि जबतक राहुल को उनकी समस्याओ की समझ नहीं होगी, तब तक वे उनके लिए कुछ भी नहीं कर पाएंगे। वे कोई वैकल्पिक तरीका या कार्यक्रम सरकार के सामने पेश नहीं कर पाएंगे और शुरू शुरू में तो वे कुछ हंगामा खड़ा कर पाएंगे और लोगों का विश्वास भी उन्हें हासिल होगा, लेकिन समय बीतने के साथ उनकी इन कोशिशों को लोग गंभीरता से लेंगे ही नहीं और उन पर मीडिया का ध्यान जाना भी शायद कम जो जाएगा।
राहुल गांधी का जोर इस बात पर है कि सारे प्रयासों का एक ही उद्देश्य होना चाहिए और वह गरीबी को समाप्त करना होना चाहिए। लेकिन उनके दुर्भाग्य से दुनिया के सभी आर्थिक सिद्धांतों का लक्ष्य यही है। जिसे पूंजीवाद आर्थिक सिद्धांत कहा जाता है, उसका भी लक्ष्य गरीबी दूर करना ही है, लेकिन उसका तरीका अलग है। इसलिए राहुल यह नहीं कह सकते कि वह तो गरीबी हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं, पर सरकार , जिसे वह सूट बूट की सरकार कहते हैं, गरीबी हटाने के लिए प्रतिबद्ध नहीं है। समझ की कमी के कारण राहुल जो कसरत कर रहे हैं, वह उन्हें कहीं दूर नहीं ले जाने वाली। जाहिर है, वह एक ऐसा लुढ़कने वाली कसरत कर रहे हैं, जिसमें वे एक जगह पर ही बने रहेंगे। (संवाद)
भारत
मोदी के विरोध में राहुल की कसरत
वह बिना किसी तैयारी के लुढ़क हैं
अमूल्य गांगुली - 2015-06-02 15:30
अमेरिका में एंबुलेंस चेजर एक पद है। एंबुलेंस चेजर बीमा के उन एजेंटों को कहा जाता है, जो बीमार लोगों को बीमा का लाभ दिलाने का वायदा करते हैं और उनके मेडिकल बिल का भुगतान कराने का जिम्मा लेते हैं। लगता है कि राहुल गांधी ने भी अपने ऊपर इसी तरह की कुछ जिम्मेदारी ले रखी है।