यह नहीं कहा जा सकता कि इस अवैध माइनिंग को सरकारी कर्मचारियों की मिलीभगत से अुजाम दिया जा रहा है और सरकारी अघिकारी और कर्मचारी उसकी तरफ अपनी आंख मूंदे हुए हैं। सच तो यह है कि इस गैरकानूनी गतिविधि को कानूनी शक्ल देने की कोशिश की गई है और वाजप्ता निजी ठेकेदारों द्वारा राज्य सरकार वहां माइनिंग करवा रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2008 में वहां माइनिंग पर रोक लगाई थी, पर प्रति दिन लगभग 50 ट्रक वहां से पत्थर उठाकर ले जाते हैं। इससे भी खतरनाक बात यह है कि ठेका मजदूर विस्फौटक लगाकर वहां के पत्थरों को तोड़ रहे हैं। सच तो यह है कि विस्फोटकों का इस्तेमाल भारी पैमाने पर किया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ाते हुए स्थानीय प्रशासन ने माइनिंग को कानूनसम्मत दिखाने के लिए एक खास तरीका इजाद कर रखा है। उसने अरावली पर्वत श्रृंखला की पहाड़ियों की सीमा को ही फिर से परिभाषित कर डाला है। यह परिभाषा मनमाने तरीे से की गई है और उसका एकमात्र उद्देश्य है राज्य सरकार को माइनिंग करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों से राहत दिलाना।

यदि कोई सामाजिक कार्यकत्र्ता सुप्रीम कोर्ट का दरवजा खटखटाए, तो अशोक की गहलौत सरकार निश्चय की मुसीबत में पड़ जाएगी।

दूसरी तरफ राज्य में पंचायती राज्यों के चुनाव की तैयारी चल रही है। 9100 गांवों मंे चुनाव होने वाले हैं। 248 पंचायत समितियां गठित होने वाली है। इन चुनावों को लेकर लोगों में भारी उत्साह है। इसका कारण यह है कि अब पंचायती राज्यों को ज्यादा अधिकार हासिल हैं। नरेगा जैसी कंन्द्रीय योजनाओं का क्रियान्वयन इन्हीं संस्थाओं के द्वारा होना है।

पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास ही नरेगा की रकम पर नियंत्रण करने का अधिकार होगा और वे ही उन मजदूरों की सूची तैयार करेंगे, जिन्हें 100 दिन के लिए काम दिया जाना है। (संवाद)