भारत में आजादी के बाद भी जनगणना में जातियों की सीमित तौर पर गिनती होती रही है और इसके सीमित आंकड़े जारी किए जाते रहे हैं। अनुसूचित जातियों की गिनती होती रही है और उनकी सभी जातियों की संख्या के बारे में सही सही जानकारी उपलब्ध होती रही है। अनुसूचित जनजातियों की संख्या की गिनती भी होती रही है और किस जनजाति के क्या आंकड़े हैं, इसके बारे में भी जनगणना आयुक्त द्वारा आंकड़े जारी किए जाते हैं। सिर्फ ओबीसी और अगड़ी जातियों की गणना आजादी के बाद से रोक दी गई थी। आजादी के पहले 1941 में दूसरे विश्वयुद्ध के कारण सही ढंग से जनगणना नहीं हो पाई थी और इसके कारण 1931 की जनगणना में ही जातियों की पूरी गणना हो सकी थी।
1951 में ओबीसी की कोई सूची ही नहीं थी। इसलिए ओबीसी की गणना का कोई मतलब ही नहीं था, लेकिन पहले की तरह सभी जातियों की गणना हो सकती थी। लेकिन कहा जाता है कि भारत के विभाजन का हवाला देकर संपूर्ण जाति जनगणना के काम को जारी नहीं रखा गया और अनुसूचित जातियों और जनजातियांे की ही गणना की गई। सबसे मजेदार बात यह है कि भारत का विभाजन संप्रदाय के आधार पर हुआ था, पर सांप्रदायिक गणना को जारी रखा गया। यानी विभाजन हुआ संप्रदाय के आधार पर और उसका हवाला देकर जाति जनगणना को रोका गया। दलित लोग भी अलग दलिस्तान की मांग आजादी के पहले कर रहे थे और उनकी गिनती भी जारी रही। लेकिन फिर भी 1951 में लोगों को यह विकल्प दिया गया था कि यदि वे अपनी जाति लिखाना चाहें, तो लिखा सकते हैं।
काका कालेलकर आयोग द्वारा ओबीसी सूची तैयार कर दिए जाने के बाद कायदे से 1961 में पूर्ण जाति जनगणना होनी चाहिए थी, लेकिन उसमें तो 1951 वाला विकल्प भी समाप्त कर दिया गया। 1995 में ओबीसी आरक्षण शुरू होने के बाद तो जाति जनगणना और भी जरूरी हो गया था। उसका कारण यह था कि मंडल केस में सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी सूची में निरंतर संशोधन का आदेश जारी किया था। आदेश में कहा गया था कि सूची में शामिल यदि कोई जाति विकास के साथ साथ पिछड़ा नहीं रह जाती, तो उसे ओबीसी सूची से बाहर कर दिया जाय और सूची के बाहर की कोई जाति यदि पिछड़ जाती है, तो उसे ओबीसी सूची में शामिल कर दिया जाय। सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का सही तरीके से पालन तभी संभव है, जब जातियों की संख्या और उनके पिछड़ेपन का सही सही आंकड़ा सरकार के पास मौजूद हो। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से गठित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग, जिसे विकसित जातियों को ओबीसी सूची से बाहर करने और पिछड़ी जातियों को उसमें शामिल करने का जिम्मा दिया गया है, बार बार सरकार से मांग करता रहा कि जातियों की जनगणना कराई जाए और उनके पिछड़ेपन और विकास से संबंधित आंकड़े जुटाए जाए, लेकिन 2001 की जनगणना में जाति को शामिल नहीं किया गया।
2011 की जनगणना के पहले भी जाति जनगणना को शामिल करने का प्रस्ताव आया, लेकिन केन्द्र सरकार इसके लिए कतई तैयार नहीं थी। कुछ लोग अदालत भी गए। 2011 की जनगणना का प्राथमिक अध्याय समाप्त होने के बाद चेन्नई हाई कोर्ट ने जाति जनगणना का आदेश जारी किया, लेकिन सरकार उसके लिए अब भी तैयार नहीं थी। उसके पास उस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का विकल्प मौजूद था। लेकिन संसद मे इस मसले पर बहुत हंगामा हुआ। लोकसभा के लगभग सभी सांसद इसकी मांग कर रहे थे। मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी इसकी वकालत कर रही थी। लालू यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, बसपा के दारा सिंह, एनसीपी के समीर भुजबल, भाजपा के श्री मुंडे और रमा देवी ने संसद में बार बार जाति जनगणना की मांग को दुहराया। सरकार ने वैसा कराने का वचन दिया। फिर लोकसभा में प्रस्ताव पास कर सरकार को इसके लिए धन्यवाद दिया गया।
संसद में अपनी प्रतिबद्धता जारी करने के बाद सरकार फिर एक बार मुकरने लगी और उसने 2011 की दस सालों बाद होने वाली जनगणना से जाति को हटा ही दिया और कहा कि आधार कार्ड बनाने के साथ ही जाति की जनगणना की जाएगी। आधार कार्ड के साथ इसे जोड़ने का मतलब था जाति जनगणना कभी भी नहीं होना। बहरहाल, संसद में ओबीसी सांसदों को जब पता चला कि आधार कार्ड के साथ नत्थी कर देने पर जाति जनगणना कभी पूरी ही नहीं हो सकती है, तो उन्होंने संसद में फिर हंगामा करना शुरू कर दिया। तबतक 2011 की अंतिम मुंडगणना का काम पूरा हो चुका था और फिर जब इसे गरीबी रेखा की जानकारी पाने वाली गणना के साथ जोड़ दिया गया।
लंबी अवधि बीत जाने के बाद उसका आंकड़ा भी आ गया है, लेकिन केन्द्र सरकार जाति के आंकड़े को जारी करना नहीं चाहती। वह ऐसा क्यों नहीं करना चाहती, इसके लिए वह कोई कारण नहीं बता रही है, जबकि आंकड़ों को जारी किए जाने के अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं। यदि आप एससी और एसटी और मुसलमानों के आंकड़ो को जारी कर सकते हैं, तो आबीसी के आंकड़ों को क्यों नहीं जारी कर सकते? जाति के आधार पर अनेक सरकारी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं, तो फिर उन कार्यक्रमों की सफलता या विफलता का आकलन के लिए जाति और उनके पिछड़ेपन और विकास के आंकड़े आने ही चाहिएं, ताकि जरूरतमंद आबादी तक सरकारी लाभ को ज्यादा से ज्यादा पहुंचाया जा सके। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ओबीसी सूची से विकसित जातियों की सूची को बाहर निकालने और पिछड़ी जातियों को उसमें शामिल करने का अपना काम सही तरीके से करता रहे, इसके लिए भी उसे जातियों के आंकड़े चाहिए। लेकिन केन्द्र सरकार मा अज्ञात भय से इसे जारी नहीं करना चाहती।
पर यह एक बड़ा राजनैतिक मुददा बनकर बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार का कारण बन सकता है। वहां ओबीसी की संख्या करीब 68 फीसदी है। उनमें ज्यादातर भाजपा विरोधी ही रहे हैं, पर पहले नीतीश कुमार के कारण और पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के कारण उनके एक बडे हिस्से ने भाजपा को वोट दिया था। पर यदि आंकड़े जारी नहीं हुए, तो वे भाजपा को पूरी तरह छोड़ सकते हैं और भाजपा की बिहार में वही स्थिति हो सकती है, जो दिल्ली विधानसभा चुनाव में हुई। (संवाद)
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ओबीसी आंकड़े बनेंगे बिहार में चुनावी मुद्दा
भाजपा का दिल्ली वाला हश्र हो सकता है वहां
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-07-16 16:54
बिहार में लालू यादव ने जाति के आंकड़े को एक बड़ा मुद्दा बनाने में सफलता पा ली है। नीतीश कुमार इस मसले पर शुरू में स्पष्ट नहीं थे, लेकिन अब उन्होंने भी इस आंकड़ों को सार्वजनिक करने को एक चुनावी मुद्दे के रूप में देखना शुरू कर दिया है। जिस रोज दिल्ली में नीति आयोग की बैठक हो रही थी, उस दिन उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जाति के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग कर दी है। यदि इसे सार्वजनिक नहीं किया गया, तो चुनावों मंे इसे एक बड़ा मुद्दा बनने से कोई रोक नहीं सकता।