पार्टी में उपस्थित लोगों की संख्या को देखें और उसकी भव्यता को देखें, तो कह सकते हैं कि यह पार्टी अपना मुख्य उद्देश्य पाने में सफल रही। इस पार्टी को देखकर यूपीए सरकार के दिनों की याद आती है।

इफ्तार पार्टी रमजान के दौरान उपवास रखने वालों के लिए दी जाती है, लेकिन राजनीतिज्ञों द्वारा इस तरह की जो पार्टियां दी जाती हैं, उसमें धार्मिकता से ज्यादा महत्व राजनीति की होती है। इफ्तार पार्टी देने वालों की शानशौकात का पता इससे चलता है। अधिकांश पार्टियों के नेता इस तरह की पार्टियों का आयोजन करते हैं और उनमे उपस्थित लोगों की संख्या से आयोजकों के रुतबे का पता चलता है।

इफ्तार की राजनीति का भारत में इतिहास पुराना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी शुरुआत की थी। उनके बाद प्रधानमंत्री बने लालबहादुर शास्त्री ने इसे जारी नहीं रखा। 1974 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने मुस्लिम वोट बैंक की खातिर इसे शुरू किया। इन्दिरा गांधी को भी वह पसंद आया और उसके बाद उन्होंने भी इसे शुरू कर दिया।

उसके बाद सभी प्रधानमंत्रियों ने इफ्तार पार्टी की इस परंपरा को आगे बढ़ाया। प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित पार्टी सरकारी पार्टी होती थी। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने भी इस परंपरा को जारी रखा। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने इस लंबी परंपरा को तोड़ दिया। नरेन्द्र मोदी ने अपने 12 साल के मुख्यमंत्रितवकाल में भी कभी इफ्तार पार्टी का आयोजन नहीं किया था और न ही वे कभी किसी इफ्तार पार्टी में गए। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दी गई इफ्तार पार्टी में भी वे शामिल नहीं हुए।

पिछले साल भी सोनिया गांधी ने इफ्तार पार्टी दी थी, लेकिन वह पार्टी फीकी थी। इस बार उपस्थित लोगों की संख्या अच्छी थी, हालांकि कुछ महत्वपूर्ण नेता अनुपस्थ्ति भी थे। सोनिया के साथ राहुल गांधी भी पार्टी के मेजबानी करने वालों में शामिल थे। पार्टी में गैर एनडीए नेताओं को खासकर बुलाया गया था। इसमे कोशिश विपक्षी एकता दिखाने की थी। संसद का सत्र शुरू होने वाला है और उसके पहले यह पार्टी देकर सोनिया गांधी ने अपने आपको विपक्ष की केन्द्र बिन्दु बनाने की कोशिश की। अब कांग्रेस को भी पता है कि यदि उसे प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभानी है, तो अन्य विपक्षी पार्टियों को भी अपने साथ रखना होगा।

पार्टी देकर सोनिया यह संकेत देना चाह रही थीं कि कांग्रेस अभी भी प्रासंगिक है। वह यह भी बताना चाह रही थीं कि उनकी राजनैतिक सक्रियता अभी भी बनी हुई है और आने वाले दिनों में भी बनी रहेगी।

कांग्रेस यूपीए गठबंधन की धुरी रही है। उसके सत्ता से बाहर जाते के बाद यूपीए लगभग अस्तित्वहीन हो गया है। इस पार्टी मे यूपीए के पूर्व घटक के नेताओं को आमंत्रित किया गया था और वे भारी संख्या में वहां आए। एनसीपी के शरद पवार और प्रफुल पटेल पार्टी में शामिल थे। कश्मीर के उमर अब्दुल्ला भी वहां मोजूद थे। डीएमके की कनिमारी वहां आई थीं। तृणमूल की ममता बनर्जी ने अपना प्रतिनिधि वहां भेजे थे। एआइएडीएमके और बीजू जनता दल के प्रतिनिधि भी पार्टी में मौजूद थे।

मुलायम सिंह यादव और वाम मोर्चे के नेताओं ने पार्टी मे हिस्सा नहीं लिया। लालू यादव भी वहां नहीं आए। लेकिन जनता दल(यू) के नेता वहां मौजूद थे। राजद ने अपना एक प्रतिनिधि वहां भेजा था। मुलायम की अनुपस्थिति वहां इसलिए थी, क्योकि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार के खिलाफ आंदोलन करने वाले हैं। वाम मोर्चा के नेता तृणमूल कांग्रेस के साथ कोई पार्टी साझा नहीं करना चाहते हैं। इसलिए वे भी वहां नहीं आए।

लेकिन जहां तक मुस्लिम समुदाय का सवाल है, तो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद मुसलमान अब तुष्टिकरण की राजनीति से परहेज रखना चाहते हैं। (संवाद)