लेकिन इस बार इतिहास नहीं दुहराया गया। इस बार पुलिस ने पूरी तत्परता दिखाई। रैली समाप्त हो जाने के बाद भी हार्दिक पटेल रैली स्थल पर कुछ सौ लोगों के साथ धरना पर बैठ गया था। यदि उसे वहां लंबे समय तक रहने की इजाजत दी जाती, तो माहौल और भी खराब हो सकता था। इसलिए पुलिस ने उसे वहां से हटाकर बिल्कुल सही किया। उसके बाद पटेल युवा हिंसा पर उतारू हो गए और जहां तहां आगजनी शुरू कर दी। गनीमत है कि पुलिस तुरंत हरकत में आई और उनके साथ सख्ती से निबटने लगी। यह सच है कि इस क्रम में पुलिस को गोलियां भी चलानी पड़ी और खुद एक पुलिस जवान सहित 9 लोग मारे भी गए। लेकिन गुजरात के दंगों के इतिहास को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस बार जान और माल की हानि बहुत कम हुई।
गुजरात में अरबों खरबों रूपाये की राशि के औद्योगिक प्रतिष्ठान हैं और वहां हिंसक माहौल के लंबा खिंचने का देश की अर्थव्यवस्था पर खराब असर पड़ सकता था। इसलिए पुलिस की सख्त और त्वरित कार्रवाई बहुत जरूरी थी। सच तो यह है कि जरूरत पड़ने पर पुलिस को उससे भी ज्यादा सख्ती दिखाने के लिए तैयार रहना चाहिए।
यह सच है कि हमारे देश में किसी को भी अपनी मांगों को मनवाने के लिए आन्दोलर करने का अधिकार है। खुद प्रशासन शांतिपूर्ण आन्दोंलन की इजाजत दे देता है। लेकिन आन्दोलन करते समय उसके नेताओं को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उनकी मांगे मान लिए जाने के लायक है भी या नहीं। आरक्षण के मामले में सांवैघानिक स्थिति स्पष्ट है। ओबीसी आरक्षण उसे ही दिया जा सकता है, जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हो और जिस जाति का उचित प्रतिनिधित्व सरकारी सेवाओं में नहीं हो। ओबीसी श्रेणी में उस जाति को ही आरक्षण दिया जा सकता है, जो इन तीनो शर्तो को पूरी करते हों। लेकिन गुजरात के पटेल न तो सामाजिक रूप से पिछड़़े हैं और न ही आर्थिक रूप से। इसके अलावा सरकारी सेवाओं और सत्ता प्रतिष्ठानों मे अपनी आबादी से ज्यादा उनका प्रतिनिधित्व हो रहा है। गुजरात में उनकी आबादी 11 फीसदी है, जबकि विधानसभा में उसे 25 फीसदी से भी ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। गुजरात की मुख्यमंत्री तो पटेल हैं ही, सरकार के अन्य 8 मंत्री भी उसी जाति के हैं। सत्ता में अन्य प्रतिष्ठानों पर भी वे काबिज हैं। जमीन पर ही उनका अनुपात से ज्यादा कब्जा नहीं है, बल्कि व्यापार और उद्योगों में भी उनकी तूती बोलती है। शैक्षिक प्रतिष्ठानों पर भी उनका कब्जा है। सच कहा जाय, तो उनके जैसा आर्थिक और राजनैतिक रूप से समृद्ध समुदाय भारत में दूसरा कोई है ही नहीं। जो आर्थिक और राजनैतिक रूप से समृद्ध होता है, उसकी सामाजिक हैसियत भी ऊंची होती है। अपने नाम के साथ पटेल सरनेम लगाना प्रतिष्ठा की बात मानी जाती है और उनके अलाव अन्य जातियों के लोग भी प्रतिष्ठा सूचक यह सरनेम लगाते हैं। यही नहीं बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे सुदरे प्रातों की कुछ जातियां भी अपने आपको प्रतिष्ठित करने के लिए अपने आपको पटेल जाति का कहलाना चाहती हैं।
जा समुदाय इस तरह संपन्न हो, वह आरक्षण मांगे यह तो देश की बहुत बड़ी त्रासदी है। लेकिन हमारे देश में जो संपन्न है वह और संपन्न होना चाहता है, जो ताकतवर है, वह दूसरों का हक मारना चाहता है, लेकिन देश में कानून और संविधान भी है, जो कमजोर वर्गों की रक्षा करता है। इसलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि इस तरह की मांग के साथ सख्ती से निबटा जाय। गुजरात में देर से ही सही, लेकिन प्रशासन ने तेजी से कदम उठाते हुए जो सख्ती दिखाई है, वह सराहनीय है।
पर सवाल उठता है कि आखिर इतना बड़ा आन्दोलन हो कैसे गया? से आयोजित करने में करोड़ों रूपये लगे होंगे। कौन कोष उपलब्ध करा रहा था? यह बहुत ही योजनाबद्ध तरीके से हुआ। इसके आयोजक कौन लोग थे? बिना कोई राजनैतिक सहयोग के इतना बड़ा आन्दोलन संभव नहीं था। वह राजनैतिक शक्तियां कौन थीं?
गुुजरात सरकार ने भी जो शुरुआती रवैया अपनाया, उससे आंदोलनकारियों को शह मिला। सरकार को पहले ही साफ कर देना चाहिए कि पटेलों को आरक्षण मिल ही नहीं सकता। वहां की मुख्यमंत्री पटेल हैं। इसके कारण भी आंदोलनकारियों को हिम्मत मिल रही थी। शायद उन्हें लग रहा था कि अपनी जाति की मुख्यमंत्री के ऊपर दबाव बनाने में उन्हें दिक्कत नहीं होगी। इसलिए मुख्यमंत्री आनंदी पटेल को पहले ही यह साफ कह देना चाहिए था कि वह चाहकर भी पटेलों को ओबीसी की सूची में नहीं डाल सकती हैं, क्योंकि संविधान उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता और उन्हें संविधान के अनुसार ही चलना है। पर इस तरह का साफ संदेश देने के बदले उन्होंने आंदोलनकारियों से बात करने और उनकी मांग पर विचार करने के लिए एक 7 मंत्रियों की समिति बना दी, जिसमें 4 पटेल समुदाय के ही मंत्री डाल दिए। इससे आन्दोलनकारियों का हौसला बढ़ा और उन्हें लगा कि मुख्यमंत्री उनकी मांग मानने का माहौल बना रही है। फिर तो आन्दोलन के लिए धर और जन जुटाने में समस्या नहीं हुई।
जाट और मराठा जैसे समुदाय भी ओबीसी आरक्षण के लिए आन्दोलन करने की धमकी दे रहे हैं। उन दोनों को आरक्षण देने की कोशिश सरकारें कर चुकी हैं, लेकिन अदालत ने उन कोशिशों को असंवैधानिक करार करते हुए उनके आरक्षण को खारिज कर दिया है। इसके बाद तो भी वे आन्दोलन कर रहे हैं, तो जाहिर है कि संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ जाने की बात कर रहे हैं। उनके साथ भी सख्ती से ही पेश आने की जरूरत है। यदि सरकार शुरू में ही साफ संकेत दे दे, तो फिर कोई वैसा आंदोलन करना ही नहीं चाहेगा, जो विफल होने के लिए अभिशप्त है। (संवाद)
गुजरात का पटेल आंदोलन
सख्ती जरूरी थी
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-08-28 10:54
गुजरात का पटेल आंदोलन जिस तेजी से शुरू हुआ, उसी तेजी से समाप्ति की ओर भी बढ़ रहा है। यह सभ्य समाज के लिए राहत की बात है। इसके लिए गुजरात पुलिस निश्चय ही बधाई की पात्र है। 1985 में जब माधव सिंह सोलंकी की सरकार ने ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया था, तब भी पटेलों ने उसके खिलाफ उग्र आन्दोलन किये और वह आन्दोलन बहुत लंबा खिंच गया था। सच तो यह है कि आरक्षण के खिलाफ पटेल बार बार आन्दोलन करते थे और आरक्षण के खिलाफ हुआ वह आन्दोलन हिन्दू मुस्लिम दंगे में तब्दील हो जाया करता था और सप्ताहों क्या, कभी कभी तो महीनों खिंच जाता था।