मेरी इच्छा उन श्रद्धालुओं की तस्वीर खींचकर अपने ट्वीटर एकाउंट पर डालने की थी, लेकिन वह संभव नहीं हो सका। अब मुझे लगता है कि वह अच्छा ही हुआ, क्योंकि यदि वह तस्वीर ट्विटर एकाउंट पर जाती, तो क्या पता यमुना के प्रदूषण के को बढ़ाने के आरोप में उस दंपति की जान के लाले पड़ जाते। तस्वीर में उस बाइक का नंबर भी आ जाता। फिर तो उनकी शामत आ जाती और वे दोनों नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल के शिकार हो जाते। आखिरकार ट्राइब्यूनल के कह रखा है कि यमुना में यदि किसी को पूरा सामग्री प्रवाहित करनी हो, तो उसे पहले 5 हजार रुपये जमा करने होंगे। उस दंपति ने हड़बड़ी में वह काम नहीं किया था। लेकिन क्या उसके लिए उस दंपति को दोष दिया जा सकता है? आखिर वहां कोई 5 हजार रुपये की राशि लेने के लिए उपस्थित था ही नहीं। यमुना पुल के दोनों ओर जाली लगी हुई है और उन जालियों के बीच कहीं कहीं ही ऐसा लूज स्थान है, जहां से बची हुई पूजा सामग्रियों को फेंका जा सकता है। इसलिए यदि किसी को शुल्क वसूली करनी है, तो उन लूज स्थानों पर एक एक शुक्ल कलेक्टर तैनात करने होंगे। चाहे तो सरकार नीलामी के द्वारा वैसे स्थानों को सबसे ज्यादा रकम देने वाले ठेकेदारों को बेच सकती है। सलाह तो यह भी दी जा सकती है कि उस तरह के छेद को पूरी तरह बंद ही कर दिया जाना चाहिए। और एक ही जगह छेद रखा जाना चाहिए, जहां से पूजा सामग्रियों को फेंके जाने की सुविधा हो और वहां राशि वसूलने वाले अधिकारी तैनात हो।

इस तरह से जजिया वसूले जाने की पूरी तैयारी हो जाएगी और कोई भी यमुना मंे अपनी पूजा सामग्री फेंककर अपनी श्रद्धा को पूरा करना चाहेगे यानी अपनी पूजा की अंतिम क्रिया पूरी करनी चाहेंगे, उनके पूजा कर वसूल लिया जाएगा। प्रत्येक श्रद्धालुओं से पांच पाचं हजार रुपये की राशि वसूल करने से हमारी सरकार का खजाना भरता जाएगा। मेरे सोचने का वह सिलसिला अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि मेरी कार के पिछले शीशे पर एक चिप्स का खाली पैकेट आ चिपका। एक दूसरी गाड़ी में बैठी हुई महिला अपना ब्रेकफास्ट समाप्त कर खाली पैकेट का निस्तारन कर रही थी। उसे जल्द आॅफिस पहुंचना था और बिना ब्रेकफास्ट किए हुए ही आॅफिस के लिए निकल गई थी और रास्ते में ब्रेकफास्ट कर रही थी। भारत के लोगों पर यह आरोप लगाना कितना गलत है कि वे काम नहीं करते। यहां तो काम करने की फिक्र इतनी ज्यादा है कि चलते चलते ब्रेकफास्ट करना होता है।

एकाएक वास्तविक दुनिया से मेरा साक्षात हुआ। मेरे पास रखे अखबार के पहले पेज पर एक सर्वे रिपोर्ट थी, जिसमें 71 फीसदी लोगों ने कहा था कि सरकार का स्वच्छ भारत अभियान विफल हो चुका है। पिछले एक साल में इससे देश की स्वच्छता पर कोई असर नहीं पड़ा है। कहने का मतलब कि इससे देश की गंदगी समाप्त नहीं हुई है। यदि सर्वे रिपोर्ट मंे ऐसा है, तो यह सही ही होगा, क्योंकि ऐसे मामले में हमारे देश के लोग झूठ नहीं बोलते। लोगों को कुछ वैसा ही अनुभव हुआ होगा।

स्वच्छता अभियान को सफल बनाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। इसकी विफलता से हमें सीख लेनी चाहिए। (संवाद)