इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण है, जब नेता ने अपनी नीतियों पर पार्टी की नीतियों को हावी नहीं होने दिया था। इंग्लैंड में हम कई बार देख चुके हैं कि वहां के लेबर प्रधानमंत्री अपनी लेबर पार्टी की नीतियों को किनारे कर अपने अनुसार नीतियों पर आचरण कर चुके हैं और पार्टी के साथ हुए टकराव में विजयी रहे हैं।

क्या नरेन्द्र मोदी उनके उदाहरण को भारत मे दुहरा पाएंगे? क्या वे भारतीय जनता पार्टी को अपने अनुसार ढाल पाएंगे? राजनैतिक पर्यवेक्षक इस पर ध्याान लगाए हुए हैं। नरेन्द्र मोदी अपने उस काम में सफल भी हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि पार्टी के अंदर उनके जैसा लोकप्रिय नेता कोई और नहीं है। पार्टी मंे उनकी जगह और कोई ले ही नहीं सकता। न तो उनकी जैसी लोकप्रियता वाला कोई नेता भाजपा में है और न ही उनके जैसा दृढ़ संकल्प रखने वाला कोई दूसरा उनकी पार्टी में है।

नरेन्द्र मोदी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के साथ जीवन भर का रिश्ता रहा है। इसलिए सवाल यह भी उठता है कि क्या वे पार्टी की नीतियों को बदलने की इच्छा रख भी पाएंगे या नहीं? यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि उन्होंने एक भीड़ द्वारा दादरी में एक मुस्लिम व्यक्ति की हत्या करने की निंदा करने में काफी देर कर दी। पहले तो उन्होंने राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के एक भाषण का सहारा लेकर इशारों ही इशारों मंे दादरी कांड की निंदा की और उसके बाद खुलकर भी उसकी निंदा कर डाली। पर सवाल यह उठता है कि वैसा करने में प्रधानमंत्री ने इतनी देर क्यों कर दी?

प्रधानमंत्री से पहले राष्ट्रपति ने दादरी कांड की निंदा की। वे एक सेकुलर नेता हैं। इसलिए उन्हें वैसा करने में समय नहीं लगा, लेकिन प्रधानमंत्री की पृष्ठभूमि संघ और भारतीय जनता पार्टी की है। इसलिए इस कांड की निंदा में उन्होंने समय लगा दिया।

भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम विरोधी दर्शन को बदलना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए आसान नहीं होगा। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि वैसा करने की केाशिश करते समय प्रधानमंत्री खुद अपनी प्रकृति के खिलाफ काम करते दिखाई देंगे और दूसरा कारण यह है कि उनकी पार्टी इस तरह के प्रयास को शक ही नहीं बल्कि शत्रुता की दृष्टि से देखती है। उनकी पार्टी इस तरह के प्रयास को हिन्दू पहचान के खिलाफ किया गया प्रयास मानती है।

भारत एक बहुलतावादी देश है और भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि यह बहुलतावाद तो सैद्धांतिक रूप से ठीक लगता है और इससे सर्वधर्मसमभाव की ध्वनि निकलती है, लेकिन व्यवहार में यह अल्पसंख्यकों की भावनाआंे को ध्यान में रखते हुए विद्यालयों के कार्यक्रमों मंे सरस्वती वंदना को वर्जित कर देता है।

गौमांस एक अन्य मुद्दा है, जो बहुत ही भावनात्मक है। अपने दो राष्ट्र के सिद्धांत के पक्ष में तर्क देते हुए मुहम्मद अली जिन्ना गाय का उदाहरण दिया करते थे। वे कहते थे कि एक तरफ हिंदू गाय की पूजा करते हैं, तो दूसरी तरफ मुसलमान गाय खाते हैं। फिर दोनों एक राष्ट्र कैसे हो सकते?

इस पृष्ठभूमि में यह आसानी से समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ’’सबका साथ, सबका विकास’’ का नारा उनकी पार्टी की हिन्दुत्ववादी मानसिकता के खिलाफ है। (संवाद)