महराष्ट्र के स्थानीय निकायों के चुनावों को घ्यान मे रखकर कांग्रेस अपनी राजनीति कर रही है। भाजपा शिवसेना की 17 साल पुरानी राजनैतिक दोस्त है। राजनैतिक कारणो से ही भाजपा ने अपनी चुप्पी तोड़ी है और शिवसेना के खिलाफ आवाज बुलंद की है, लेकिन कांग्रेस अभी भी वहां अपनी ढुलमुल राजनीति पर कायम है। से साल के अंत में बिहार में भी चुनाव होने वाले हैं। भाजपा पर उसका दबाव पड़ रहा है और कांग्रेस पर भी।
शिवसेना की समस्या यह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मुंबई में उसका सफाया हो गया। उसने वहां एक भी सीट नहीं जीती। ठाणें उसका बहुत बड़ा गढ़ रहा है। वहां भी उसकी हार हो गई। हार से शिवसेना बौखला गई है। अपनी खोई जमीन को वापस पाने के लिए उसके फिरकापरस्ती को फिर अपना हथियार बना लिया है। वह कभी बिहारियों पर हमले कर रही है, तो कभी बालीवुड के सितारों पर। 1960 के दशक मंे शिवसेना का गठन हुआ था। गठन के साथ ही उसने तब दक्षिण भारतीयों पर हमला करना शुरू कर दिया था। लुंगी के नीचे पुंगी का नारा लगाते हुए उन्होंने लु्रगीवालों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था। वे दक्षिण भारतीयों को मुंबई से निकालना चाहते थे, ताकि मराठी लोगों को ज्यादा से ज्यादा काम मिल सके।
वे फिर वही राजनीति दुहरा रहे हैं, जो उन्होंने 1960 के दशक में की थी, लेकिन राज और बाल ठाकरे यह भूल रहे हैं कि तब और अब में मुंबई में काफी फर्क आ गया है। उनकी गंडागर्दी अब उन्हीं पर भारी पड़ सकती है। उन्हें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब आतंकवादियों ने मुंबई पर हमला किया था, तो उनका मुकाबला करने वाले कमांडो मुंबई के नहीं थे, बल्कि भारत के दूसरे क्षेत्रो से आए थे।
भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शिवसेना के खिलाफ अपनी चुप्पी आखिरकार तोड़ ही दी हे। उसके बाद दोनों की 17 साल पुरानी दोस्ती खतरे में पड़ गई है। लेकिन यह होना ही था, क्योंकि भाजपा शिवसेना की तरह कोई क्षेत्रीय पार्टी नहीं है। उसे देश के दूसरे हिस्से को लोगों को भी जवाब देना होता है। वैसे भी पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बाद दोेनों के बीच दरार पैदा हो गई है। शिवसेना को लगता है कि उसकी हार के लिए भाजपा के कार्यकत्र्ताओं द्वारा उसके उम्मीदवारों को सहयोग नहीं दिया जाना है। भाजपा को लगता है कि शिवसेना की हार के पीछे राज ठाकरे द्वारा उसके आधार का किया गया विभाजन है।
दोनों के बीच पैदा हुए इस अविश्वास के अलावा बिहार में होने वाला विधानसभा चुनाव भी भाजपा को शिवसेना के खिलाफ कदम उठाने के लिए विवश कर रहा है। वहां जनता दल (यू) पहले ही अपने आंतरिक असंतोष से परेशान है। वैसे में भाजपा द्वारा शिवसेना के खिलाफ चुप्पी उसके लिए और भी खतरनाक हो सकती थी और इसके कारण जनता दल (यू) राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से बाहर भी हो सकता थां। इसलिए भाजपा ने अब शिवसेना को चुनौती देना शुस् कर दिया है।
लेकिन कांग्रेस ने अभी भी अपनी राजनीति साफ नहीं की है। उसके नेताओं की ओर से राज और बाल ठांकरे के खिलाफ बयान आ रहे हैं, लेकिन कांग्रेस की ओर से आने वाले बयानों का कोई खास मतलब नहीं। वह केन्द्र और महाराष्ट्र दोनो जगह सरकार में है। इसलिए उससे बयानबाजी की उम्मीद नहींए बल्कि कार्रवाई की उम्मीद की जाती है। उसने टैक्सी की राजनीति कर पहले ही माहौल खराब कर दिया है। महाराष्ट्र की सरकार ने आदेश निकालते हुए कहा कि टैक्सी का लाइसेंस उसी को मिलेगा, जो मराठी बोलना और लिखना जानते हैं। हालांकि मुख्यमंत्री अशोक चैहान ने बाद में पलटते हुए हिंदी और गुजराती को भी वहां की लोकल भाषा करार दिया। लेकिन उस निर्णय से जो नुकसान होना था, वह हो गया।
अब गेंद मुख्यमंत्री अशोक चैहान के पाले में है। पूरा देश उनकी ओर देख रहा है कि वे शिवसेना और मनसे के खिलाफ क्या कार्रवाई करते हैं। उनके द्वारा दोनो सेनाओं और उनके नेताओं के खिलाफ की जाने वाली किसी भी कठोर कार्रवाई में पूरा देश उनके साथ है। (संवाद)
भारत: महाराष्ट्र
मुंबई में कड़े कदम उठाने का समय आ गया है
अशोक चौहान को अब सख्त होना ही होगा
कल्याणी शंकर - 2010-02-05 11:00
यदि किसी को मुंबई की घटनाओं को देखकर आश्चर्य हो रहा हो और उसे समझ में नहीं आ रहा हो कि वहां यह सब क्यों हो रहा है, तो वैसे लोगों को जान लेना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा है, उसके पीछे वोट की राजनीति के अलावा और कुछ भी नहीं है। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना वोट पाने के लिए मराठा मानूस के मसले को उठा रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा भी वोटों के खातिर वहां अपनी अपनी राजनीति कर रही है।