उत्तर प्रदेश की दादरी में एक मुस्लिम घर में कुछ लोग घुसे और उसके दो पुरुष सदस्यों पर हमला कर डाला। उसमें एक की मौत हो गई और दूसरा बुरी तरह घायल हो गया। वह घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण थी। उस घर में गोमांस होने की अफवाह फैलाकर उनके खिलाफ लोगों को भड़काकर वहां लाया गया था, हालांकि वह अफवाह गलत साबित हुई। यदि वह अफवाह सही भी साबित होती, तब भी उस तरह की घटना घटित होना शर्मनाक ही होता। यदि कोई गैरकानूनी रूप से गौहत्या कर रहा हो अथवा अपने घर में गैरकानूनी गौरमांस रखता हो, उसे दंडित करने का काम पुलिस और कानून का है न कि किसी भीड़ का।
बहरहाल, उस घटना को सभी तबकों द्वारा भारी तूल दिया गया और उसे तूल दिए जाने के कारण ही लेखकों ने पुरस्कार लौटाने शुरू किए। सवाल उठता है कि देश में आजादी के बाद क्या उस तरह की कोई पहली घटना घटी थी,? घटना दुर्भाग्यपूण थी, लेकिन सच यह भी है कि इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं भारी संख्या में हमारे देश में घटती रहती हैं। यह सिर्फ सांप्रदायिकता के कारण ही नहीं घटती है, बल्कि क्षेत्रीयता, जातीयता और अन्य कारणों से भी घटती है। एक सभ्य समाज को इसकी निंदा करनी चाहिए और राज्य का यह काम होना चाहिए कि इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए हर संभव उपाय करे। देश के बौद्धिक वर्ग का कर्तव्य है कि वह ऐसा माहौल तैयार करने का काम करे, जिसके कारण इस तरह की घटनाएं न घटे।
लेकिन क्या हमारे देश का बौद्धिक वर्ग अपनी जिम्मेदारी निभाता आया है? उस वर्ग के कुछ लोगों द्वारा दादरी के बाद दिखाया जा रहा दर्द उनके मंसूबों पर सवाल खड़ा करता है। दादरी उत्तर प्रदेश में है और वहां समाजवादी पार्टी की सरकार है, लेकिन जा पुरस्कार और सम्मान की वापसी कर रहे हैं, उनका निशाना नरेन्द्र मोदी और केन्द्र की उनकी सरकार है। कानून- व्यवस्था का पालन करवाना हमारे संविधान के तहत प्रदेश सरकार की जिम्मेदारी होती है और यदि किसी प्रदेश की सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करने में विफल होती है, तब केन्द्र का दायित्व बनता है कि वह संविधान की धारा 356 का इस्तेमाल करते हुए वहां की सरकार को बर्खास्त कर दे और राष्ट्रपति शासन लगाकर वहां की सत्ता अपने हाथ में संभाल ले।
पर क्या वास्तव में दादरी की उस घटना के बाद उत्तर प्रदेश की स्थिति ऐसी हो गई है, जिसके कारण वहां की सरकार को बर्खास्त किया जा सके? क्या पुरस्कार लौटाने वाले लोग यह शिकायत कर रहे हैं कि केन्द्र सरकार दादरी कांड के बाद अपनी जिम्मेदारी को वहां निभाने में विफल रही, क्योंकि उसने उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार को बर्खास्त नहीं किया? कोई सिरफिरा ही कहेगा कि उत्तर प्रदेश की स्थिति ऐसी हो गई है, जिसमें केन्द्र सरकार को हस्तक्षेप कर राष्ट्रपति शासन लगाना चाहिए और दादरी जैसी घटना को रोकना चाहिए। उत्तर प्रदेश सरकार ने त्वरित कार्रवाई कर उस कांड में आरोपित सभी अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया है और पीड़ित परिवार को मुआवजा भी दिया है। इसलिए वहां जिस सरकार को करना चाहिए था, उस सरकार ने अपना कर्तव्य निभाया है, लेकिन उसके बावजूद भी बौद्धिक वर्ग के कुछ लोगों द्वारा पुरस्कार लौटाने की यह असहिष्णुता क्यों है?
पुरस्कार लौटाने वालों को प्रधानमंत्री से शिकायत है कि दादरी घटना की निंदा करने मे उन्होंने देर क्यों कर दी ? सवाल है कि क्या यह जरूरी है कि प्रधानमंत्री देश में होने वाली सभी निंदनीय घटनाओं की अलग अलग निंदा करते रहें? फरीदाबाद में एक दलित परिवार के दो बच्चों के जलने की घटना की खबर आई थी। प्रधानमंत्री ने उसकी भी निंदा नहीं की। दादरी के बाद हजारों की उससे भी भयंकर हत्या कांड हुए होंगे, जिनमें से कुछ अपवादों को छोड़कर कोई भी राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच नहीं सका। जिन घटनाओं ने राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है, उनमें से कितने की निंदा प्रधानमंत्री ने की? सच तो यह है कि यह संभव ही नहीं है कि प्रधानमंत्री सभी घटनाओं की निंदा लिखकर करते रहें। प्रधानमंत्री ही क्या, यदि किसी व्यक्ति को इस तरह तरह की घटनाओं की निंदा करने का 24 घटों का काम सौंप दिया जाय, तो वह भी सबकी निंदा करने के लिए पर्याप्त समय नहीं निकाल पाएगा। इसलिए मात्र इसलिए कि प्रधानमंत्री ने उस घटना की निंदा करने में देर लगा दी, उनके खिलाफ इस तरह का अभियान चलाना गलत होगा।
हमारे देश में जाति के नाम पर जितनी असहिष्णुता बरती जाती है, उतना किसी और नाम पर नहीं। अभी अभी एक रिपोर्ट आई हैं कि उड़ीसा में एक स्कूल की छात्रा को सिर्फ इसलिए पूजा में शामिल होने नहीं दिया गया, क्योंकि वह दलित थी। एक मासूम लड़की के मनोविज्ञान पर उसका कैसा असर पड़ा होगा। वह तो फिर मानसिक हिंसा ही थी, हजारों दलित रोज शारीरिक हिंसा का शिकार अपनी जाति विशेष के कारण होते रहते हैं। उनकी कुछ खबरें मीडिया में भी आ जाती हैं, लेकिन उस पर आंसू क्या कभी उन्होने बहाया, जो आज पुरस्कार वापसी की असहिष्णता दिखा रहे हैं? (संवाद)
असहिष्णुता पर बहस: जातीय असहिष्णुता पर कोई सम्मान क्यों नहीं लौटाता?
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-11-07 10:36
आजकल सम्मानों और पुरस्कारों को लौटाने की होड़ लगी हुई है। लौटाने वाले लोग कह रहे हैं कि देश में सहिष्णुता समाप्त हो गई है या हो रही है और इस प्रवृति का विरोध करते हुए वे अपने सम्मान और पुरस्कार लौटा रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या हमारा समाज वाकई बहुत सहिष्णु रहा है? जिस असहिष्णुता के विरोध में सम्मान वापस लौटाए जा रहे हैं, क्या वह समाज में अभी अभी आई है? आखिर पिछले दिनों कुछ ऐसा क्या नया हुआ, जिसने कुछ सहिष्णु लोगों को हिलाकर रख दिया है?