चुनावी नतीजों ने सत्ताधारी यूडीएफ को जबर्दस्त झटका दिया है। इसने मुख्य विपक्षी एलडीएफ को जीत दिलाई है। और पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश की राजनीति में अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज कराई है।

भारतीय जनता पार्टी का मत प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है। पिछले चुनाव में इसे 12 फीसदी मत मिले थे और इस चुनाव में उसे 17 फीसदी मत मिले। अनेक पंचायतों और उनके वार्डों में भाजपा के उम्मीदवारों की जीत भी हुई है।

भारतीय जनता पार्टी ने इझावा के संगठन श्री नारायणा धर्म परिपालन योगम (एसएनडीपी) के साथ गठबंधन किया था। इसके कारण उसे और भी बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद थी। इसलिए यदि उसके मानक से देखा जाय, तो भाजपा को मिली सफलता बहुत अच्छी नहीं है। लेकिन फिर भी दक्षिण के इस राज्य में यूडीएफ और एलडीएफ के बीच बटी राजनीति के बीच उतनी सफलता प्राप्त करना भाजपा के लिए कम मायने नहीं रखता है।

भाजपा के स्थानीय नेता अमित शाह के हस्तक्षेप का विरोध करते रहे हैं। उनका रवैया हेड मास्टर जैसा होता है और अपनी बात वह केरल की प्रदेश ईकाई से उनकी इच्छा के विरूद्ध भी मनवाते रहते हैं।

केरल की ईकाई जिन शर्तों पर एसएसडीपी के साथ गठबंधन नहीं करना चाहती थी, उन्हीं शर्तों पर उस अमित शाह के दबाव के कारण उसे मानना पड़ा। अमित शाह को उम्मीद थी कि एसएनडीपी के साथ गठबंधन से पार्टी को काफी फायदा होगा, लेकिन एसएनडीपी के कथित मजबूत क्षेत्र में उसे ज्यादा फायदा नहीं मिला। सच तो यह है कि एसएनडीपी के अपने उम्मीदवारों की स्थिति भी अच्छी नहीं रही।

बिहार चुनाव में भाजपा की पराजय के बाद केरल के स्थानीय नेताओं को लगता है कि अब अमित शाह का हस्तक्षेप कम होगा और अगले चुनावों की रणनीति बनाने में उनकी अपनी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होगी।

पहले लोग यह अनुमान लगा रहे थे कि भारतीय जनता पार्टी के मतों में वृद्धि लेफ्ट पार्टियों की कीमत पर होगी और इसके कारण कांग्रेस को फायदा होगा। लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उलटा।

इसका कारण यह है कि भारतीय जनता पार्टी और एसएनडीपी के खिलाफ एलडीएफ के नेताओं ने हल्ला बोल रखा था। इसके कारण यूडीएफ को समर्थन करने वाले अल्पसंख्यक लोग एलडीएफ की ओर झुकने लगे।

प्रदेश के अल्पसंख्यकों को लगा कि सांप्रदायिकता से लड़ने में एलडीएफ कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले एलडीएफ से ज्यादा समर्थ है। इसके कारण वे कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को छोड़कर सीपीएम और उसके सहयोगी दलों की ओर झुकने लगे। इसके कारण भाजपा के बढ़े प्रतिशत के बावजूद एलडीएफ को ज्यादा मत मिले और घाटे में यूडीएफ रहा।

एलडीएफ की सफलता का एक बड़ा कारण सीपीएम की एकता रही। सीपीएम के तीनों वरिष्ठ नेताओं ने मिलजुलकर काम किया।

यूडीएफ की हार का एक कारण उसकी सरकार पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोप भी था। खासकर वित्तमंत्री मणि को लेकर जनता में अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। ओमन चांडी मणि के सामने अपने को असमर्थ पा रहे हैं। उनकी इस कमजोरी का प्रभाव भी चुनावों और उनके नतीजों पर पड़ा।

अगले साल विधानसभा का आम चुनाव होना है। स्थानीय निकायों के ये चुनाव सीपीपीएम और उसके नेतृत्व वाले एलडीएफ के लिए आशा का संदेश लेकर आया है।

प्रदेश में विधानसभा के 140 क्षेत्र हैं। उनमें से 87 क्षेत्रों मंे एलडीएफ को यूडीएफ से ज्यादा मत मिले हैं, जबकि यूडीएफ के मिले मतों की संख्या मात्र 53 ही है। जाहिर है, आगामी विधानसभा चुनाव का सामना एलडीएफ बढ़े हौसले के साथ करने वाला है, जबकि यूडीएफ के हौसले पस्त हो गए हैं। (संवाद)