बिहार में चुनाव जातीय समीकरण के आधार पर जीते जाते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत जातीय समीकरण अनुकूल होने के कारण ही हुई थी। नरेन्द्र मोदी के ओबीसी होने के कारण ओबीसी मतदाताओ का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ आ गया था और पार्टी जीत गई थी।
विधानसभा चुनाव की घोषणा के ठीक पहले भाजपा का सामाजिक समीकरण थोड़ा और बेहतर हो गया था। नीतीश कुमार द्वारा जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर हटा देने के कारण दलित भी भाजपा की ओर मुखातिब हो रहे थे। यह सच है कि लालू और नीतीश के एक मंच पर आ जाने के कारण भाजपा की चुनौती बड़ी हो गई थी, लेकिन उसके बावजूद भाजपा का जातीय गणित लालू- नीतीश के गठबंधन से मजबूत था। नीतीश के मोर्चे का सामाजिक आधार 35 फीसदी तक सीमित था, जबकि भाजपा का सामाजिक आधार 35 फीसदी तक विस्तृत था। कहने का मतलब नीतीश के मोर्चे को यादव- कुर्मी-यादवो की 35 फीसदी आबादी से ही ज्यादातर वोट आने थे। उसके बाहर के बहुत कम वोट मिलने वाले थे, जबकि भाजपा गठबंधन को शेष 65 फीसदी से वोट आने वाले थे।
लालू और नीतीश के सामने एक दूसरे के मतों को ट्रांसफर करने की समस्या भी बनी हुई थी। लालू समर्थक यादव जाति के लोग नीतीश को पसंद नहीं कर रहे थे, इसलिए इस बात की पूरी उम्मीद थी कि उस जाति के मतों का एक बड़ा हिस्सा नीतीश के खिलाफ भी जा सकता है।
लेकिन मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा वाला बयान देकर चुनाव की बाजी पलट डाली। यदि कोई आरक्षण विरोध के लिए ज्ञात व्यक्ति या संगठन आरक्षण की समीक्षा की मांग करता है, तो उसका मतलब आरक्षण को समाप्त करना या कमजोर करना ही होता है। आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी को लोग आरक्षण विरोधी संगठन के रूप मंे ही जानते हैं। वह तो नरेन्द्र मोदी को पीएम उम्मीदवार बनाया गया था, इसलिए बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में भारी संख्या में ओबीसी के लोगों ने भाजपा और सहयोगी दलों को वोट डाले थे।
पर मोहन भागवत ने समीक्षा की बात करके लालू यादव और नीतीश कुमार का काम आसान कर दिया। एकाएक बिहार का सामाजिक समीकरण उनके पक्ष में और भाजपा के विरोध में जाने लगा। उसके कारण यादव जाति के लोग नीतीश से अपना मनमुटाव भुलाकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए सचेष्ट हो गए। कुछ अन्य ओबसी जातियों पर भी उसका असर पड़ा। यादवों का वोट पाने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने उन्हें 26 सीटें दे डाली थीं, लेकिन आरक्षण समीक्षा के बयान के कारण उनमे ंसे अधिकांश यादवों के वोट से वंचित हो गए। कुशवाहा भी ज्यादातर भाजपा और उसके गठबंधन के दलों के साथ ही थे, लेकिन आरक्षण की समीक्षा की बात से वे भी नीतीश के पक्ष में गोलबंद होने लगे। इसके कारण लालू- नीतीश गठबंधन का कोर वोट 35 फीसदी से बढ़कर 40 फीसदी हो गया। अवधेश कुशवाहा नाम के एक मंत्री के स्टिंग आपरेशन ने भी कुशवाहों को भाजपा के खिलाफ कर दिया। जाति की राजनीति किस तरह काम करती है, इसकी समझ बिहार में बाहर से आए भाजपा नेताओं को पता ही नहीं था।
ओबीसी के साथ साथ भाजपा के समर्थन कर रहे दलित भी मोहन भागवत के बयान से चिंतित हो गए और एकाएक उनकी मुखरता समाप्त हो गई। आरक्षण की समीक्षा की मांग से सिर्फ एक डर ही नहीं सताता है कि यह समाप्त कर दिया जाएगा, बल्कि यह डर भी सताता है कि किसी जाति विशेष को इससे से बाहर किया जा सकता है अथवा एससी एसटी में भी ओबीसी की तरह क्रीमी लेयर का प्रावधान किया जा सकता है। जाहिर है, इसके कारण भाजपा को वोट देने का मन बना रहा दलित समुदाय भी एकाएक ठिठक गया। दूसरे और तीसरे दौर में कम मतदान का एक बड़ा कारण यह भी था।
मोहन भागवत ने क्या वह बयान जानबूझकर दिया या उनसे गलती हो गई? इसका जवाब तो वही दे सकते हैं, लेकिन अब कहा जा रहा है कि भागवत के बयान को गलत तरीके से लिया गया। गलत तरीके से लिया गया होगा, लेकिन सवाल उठता है कि भागवत ने खुद उसको सही तरीके से पेश क्यों नहीं किया? समीक्षा का मतलब आरक्षण व्यवस्था को मजबूत करना है, बैकलाॅग को भरा जाना है और न्यायपालिका मंेे भी आरक्षण देना है- यदि इस तरह की सफाई खुद भागवत की ओर से आती, तो यह माना जाता कि वे आरक्षण की उनकी समीक्षा दलितों और ओबीसी को फायदा पहुंचाने के लिए है। लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया।
भागवत ने आरक्षण पर जो बयान दिया था, वह भाजपा को बिहार चुनाव में डुबा रहा था। उससे बचने के लिए नरेन्द्र मोदी ने आरक्षण बचाने के लिए जान की बाजी लगा देने का संकल्प कर डाला। तबतक यादव और कुशवाहा नीतीश के पीछे गोलबंद हो चुके थे। मोदी के बयान ने उस गोलबंदी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा। उल्टे उनके आरक्षण विरोधी अपर कास्ट के लोग भाजपा विरोधी हो गए। वे लालू और नीतीश के समर्थक भी नहीं हो सकते थे, लेकिन उन दोनों के गठबंधन के अगड़े उम्मीदवारों को तो वोट दे ही सकते थे। उन्होंने वैसा ही किया। लगभग 10 लाख वोट नोटा को मिले। उनमें से भी ज्यादातर वोट अगड़ी जातियों के लोगों के ही थे। मोदी के भाषण का एक असर यह भी हुआ कि अगड़ी जातियों के मतदाताओं को एक बड़ा हिस्सा वोट देने ही नहीं निकला।
इस तरह भागवत के बयान ने दुधारी तलवार का काम किया। उसकी एक धार ने नीतीश- लालू के मतदाता आधारों को मजबूत किया, तो उसकी दूसरी धार ने भाजपा के आधार अगड़ी जातियों को उससे दूर कर दिया, क्योंकि पिछड़ा वोट पाने के लिए अमित शाह और मोदी ने आरक्षण के पक्ष में बयान देना शुरू कर दिया था।
इसलिए भाजपा क्यों हारी, यह किसी से छुपा हुआ रहस्य नहीं है। आडवाणी भी इसे जानते हैं और जोशी भी। यदि नरेन्द्र मोदी ने अति पिछड़ा कार्ड नहीं खेला होता, तो भाजपा को विधानसभा में मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए जरूरी 25 सीटे भी नहीं मिलतीं और आज जो कांग्रेस की हालत लोकसभा में है, वही हालत बिहार विधानसभा में भाजपा की होती। (संवाद)
भाजपा की हार की समीक्षा की जरूरत क्या है?
मोहन भागवत ने डुबाई है पार्टी की नैया
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-11-18 12:08
भारतीय जनता पार्टी के अंदर से मांग उठ रही है कि पार्टी हार की समीक्षा करे और इसके लिए जिम्मेदारी भी तय करे। लेकिन क्या वास्तव में हार की समीक्षा की जरूरत भी है? इसका कारण यह है कि पार्टी क्यों हारी, यह आईने की तरह साफ है।