ऐसी बैठकों की दिशा प्रधानमंत्री के भाषण से ही तय होती है और प्रधानमंत्री ने कहा कि लोगांे का यह मानना गलत है कि हम कीमतों को नियंत्रित करने में सक्षम हैं। प्रश्न है कि आम नागरिक प्रधानमंत्री से उम्मीद नहीं करे तो किससे करे? महंगाई राज्य का विषय है या केन्द्र का, केन्द्र के हाथों क्या है और राज्य के हाथों क्या, महंगाई बढ़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार राज्यों के पास है.... आदि बातों से आम आदमी का लेना-देना नहीं है। सच यह है कि देश की बड़ी आबादी इसे समझती भी नहीं है। उसके लिए तो बस, महंगाई से निजात का प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है।

वास्तव में यह साधारण चिंता की बात नहीं है कि प्रधानमंत्री यह तो स्वीकारते हैं कि पिछले दो सालो में खाद्य सुरक्षा और कीमतों को नियंत्रित करने का मामला प्रमुख मुद्दा बन चुका है, पर वे ऐसा कर पाने में अक्षमता महसूस कर रहे हैं। अगर राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पूछा जाए तो उनका जवाब भी ऐसा ही होगा। यानी केन्द्र एवं राज्य सरकारें महंगाई को स्वीकार तो करतीं हैं, पर उसे रोकने में वे सक्षम नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि केन्द्र सरकार ने इसके लिए कुछ किया नहीं है। केन्द्र ने खाने की वस्तुओं के आयात पर लगने वाले कर व शुल्कों को माफ किया हुआ है। दाल और खाद्य तेलों पर तो प्रति किलो 10 से 15 रुपए की सब्सिडी भी दी जा रही है। लेकिन साफ है कि महंगाई के सुरसा के सामने ये कदम अत्यंत छोटे या निष्प्रभावी हैं। कैसे आम लोगों को उनके उपयोग की आवश्यक चीजें उचित मूल्य पर मिलें, इसे सुनिश्चित करने का कोई सूत्र केन्द्र या राज्यों के पास नहीं है। प्रधानमंत्री के पास वही पुराने सूत्र हैं, गरीबों और आम आदमी को वाजिब मूल्य पर आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत और सक्षम बनाया जाए। उन्होंने बैठक में राज्यों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आम आदमी तक आवश्यक वस्तुएं उचित मूल्य पर पहुंचे इसके लिए राज्यों का हरसंभव प्रयत्न करना चाहिए। प्रकारांतर से वे यह कह रहे हैं कि राज्यों को जितना प्रयत्न करना चाहिए उतना वे नहीं कर रहे हैं।

जन वितरण प्रणाली राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं, इसलिए प्रधानमंत्री की यह नसीहत सामान्यतः अनुचित नहीं है। लेकिन अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो फिर इसका विकल्प तो तलाशना ही होगा। प्रधानमंत्री न जाने कितनी बार राज्यों से जमाखोड़ों के खिलाफ कठोर कानूनी कार्रवाई की बात कह चुके हैं। क्या परिणाम हुआ इसका? मुख्य सचिवों की बैठक में भी यदि आप फिर यही आग्रह करते हैं तो इसका कोई अलग परिणाम आएगा इसकी उम्मीद कतई नहीं करनी चाहिए। एक ओर आप राज्यों को नसीहत देते हैं और दूसरी ओर यह भी कह देते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मांग और आपूर्ति की खंीच-तान से अपने आपको पूरी तरह अछूता रखना संभव नहीं है। इसका अर्थ क्या है? आखिर सरकार का दायित्व क्या है? यहीं पर तो उसकी भूमिका सामने आनी चाहिए। अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ वस्तुओं के मूल्य बढ़े हैं, तथा अपने देश में खाद्यान्न सहित अन्य आवश्यक वस्तुओं की मांग की तुलना में कमी है तो इनके बीच संतुलन बनाते हुए लोगों को इनकी बड़ी चोट से बचाने का प्रबंध तो सरकार को ही करना है और इसमें केन्द्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है।

साफ है कि इस प्रबंधन की महत्वपूर्ण भूमिका में केन्द्र भी विफल है और राज्य सरकारें भीं। इसमें भारतीय रिवर्ज बैंक द्वारा 29 जनवरी को बैंकों के नकद आरक्षी अनुपात में 0.75 प्रतिशत की कटौती के कारण बाजार से 36 हजार करोड़ की नकदी तो कम जाएगी, पर महंगाई पर कोई भारी असर होगा ऐसा नहीं है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने पिछले दिनों कहा कि सूखे का नकारात्मक असर कम हो रहा है एवं खाद्य वस्तुओं के दाम नीचे आ जाएंगे। ऐसा हुआ नहीं। आप देखिए, आलू की कीमत 2009 में 2008 के मुकाबले 110 प्रतिशत बढ़ी हैं तो दालों की औसत 42.21 प्रतिशत तथा सब्जियों की 30.97 प्रतिशत। जिस प्याज ने कांग्रेस को 1980 का आम चुनाव तथा 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में जीत दिलाई उसकी कीमत भी 40.07 प्रतिशत बढ़ी। चीनी तो महंगाई का खलनायक बन चुका है। .चीनी की कीमत पिछले साल की शुरुआत में 21 रुपऐ प्रति किलो थी। आज 44-45 रुपए है। दिसंबर अंत में यह 39 रुपए थी। इसके अनेक कारण दिए जा सकते हैं। मसलन, अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतें बढ़ी हैं जो 718-19 डॉलर प्रति टन के स्तर पर पहुंच चुका है। भारत में चीनी का उत्पादन खपत से कम हुआ और शादी-विवाह के मौसम के कारण मांग भी बढ़ी है। सरकार के पास खुले बाजार में मांग के अनुसार आपूर्ति संभव नहीं है। आयातित चीनी के द्वारा मांग की पूर्ति करने की कोशिश की जा रही है और इसका मूल्य ज्यादा देना पड़ रहा है।

इन सारे कारणों को इसी प्रकार मान लें जैसा सरकार कह रही है, तो भी यह प्रश्न बना ही रहता है कि आखिर सरकार होेने का अर्थ क्या है? यह निष्कर्ष निकालना गलत नहीं होगा कि धीरे-धीरे देश की अनेक चीजें सरकार के नियंत्रण से बाहर जा रहीं हैं। पेट्रोलियम पदार्थो से सब्सिडी कम करने के लिए गठित केतन पारेख समिति की रिपोर्ट आ चुकी है। सरकार सब्सिडी हटाने का निर्णय करती है तो पेट्राॅल एवं डीजल के मूल्य बढ़ेंगे और इसका असर अन्य वस्तुओं के मूल्यांे पर भी पड़ेगा, क्योंकि ढुलाई खर्च बढ़ जाएगा। प्रधानमंत्री ने कहा ही है कि पिछले कुछ समय से यह गलत धारणा रही है कि खाद्य वस्तुओं की उपलब्धता पर्याप्त है और चिंता की कोई बात नहीं। यानी आगे और कठिन स्थिति पैदा हो सकती है। सामान्य आकलन यही है कि महंगाई दर इस वर्ष भी 8 प्रतिशत से ऊपर रहेगा। तो फिर राज्यों के मुख्य सचिवों या फिर मुख्यमंत्रियों की बैठक का औचित्य क्या है? अगर ये कुछ कर ही नहीं सकते और आम आदमी परिस्थितियों के हवाले हैं तो फिर इनका होना और न होना दोनों समान है।

आम आदमी की दृष्टि से केन्द्र सरकार की निष्प्रभावी सदृश स्थिति महंगाई से ज्यादा चिंताजनक है। ज्यादातर राज्य सरकारों को भी हम इसी श्रेणी में रख सकते हैं। ऐसे में यह प्रश्न भी उठता है कि आखिर हमारे देश को चला कौन रहा है। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने स्वयं रेडियो एवं टेलीविजन से कुछ वस्तुओं के मूल्य निश्चित करते हुए घोषणा किया कि इससे ज्यादा मूल्य पर बेचने वालों की खैर नहीं और महंगाई अपने-आप गिर गई। खुले बाजार में कीमतें इतनी कम हो गईं कि लोग जन वितरण प्रणाली की दूकानों में जाना बेकार समझने लगे। यह एक प्रत्यक्ष उदाहरण है दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का। कारण गिनाना या किंतु, परंतु बोलना अपनी विफलता या कमजोरी को ढंकने के औजार मात्र है। प्रधानमंत्री इस बात को क्यों छिपाते हैं कि बाजार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के जिस रास्ते पर उन्होंने देश को दौड़ा दिया उसमें महंगाई को बड़ी समस्या माना ही नहीं जाता? महंगाई को विकास का परिचायक माना जाता है। यदि महंगाई ज्याद गिर जाए तो उसे विकास विरोधी माना जाता है। दुर्भाग्य यह है कि देश में एक वर्ग तो इस अर्थव्यवस्था से लाभान्वित हुआ और उसके लिए आम वस्तुओं की महंगाई मुद्दा ही नहीं, परंतु बहुसंख्य आबादी जो इस लाभ से वंचित है कराह रही है।

इस स्थिति का अंत करना होगा। महंगाई तो पूरी बीमारी का एक लक्षण है। बीमारी का अंत करने के लिए व्यवस्था में बदलाव आवश्यक है। प्रधानमंत्री ने अनाज का पैदावार बढ़ाने के लिए राज्यों से कमर कसने के लिए कहा है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने गणतंत्र दिवस के अपने संबोधन में दूसरी हरित क्रांति का आह्वान किया। लेकिन पहली हरित क्रांति ने भारत की विविधतापूर्ण खेती का अंत कर कुछ फसलों तक सीमित किया, अत्यधिक सिंचाई के कारण भूगर्भीय जल की कमी हुई तथा अत्यधिक रसायनों एवं कीटनाशकों के प्रयोग का भयावह दुष्परिणाम आया है। इसलिए यह उद्धार का रास्ता नहीं हो सकता है। उद्धार तो वर्तमान परिस्थितियों के अनुरुप संशोधित कर हमारी परंपरागत कुषि एवं जीवन प्रणाली को अपनाने में ही है। सरकार केवल व्यापार बढ़ने और कर बढ़ाने की बजाय अपना एप्रोच यह बनाए कि आम आवश्यकता की चीजें देश में ही पैदा हो जाएं और वे सबके लिए उचित मूल्य पर सुलभ हों। लेकिन सरकारों से इतर जो शक्तियां इस व्यवस्था से लाभान्वित हो रहीं हैं वे ऐसा होने नहीं देंगी। (संवाद)