लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है कि दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले पर ही नहीं, बल्कि फैसला करने वाले तक को घेरे में लिया जा रहा है। वह तब जबकि उस फैसले में किसी को दोषी साबित भी नहीं किया गया है। सिर्फ एक निचली अदालत को उस मामले की सुनवाई जारी रखने के लिए कहा गया है, जिस पर दिल्ली हाई कोर्ट ने ही रोक लगा रखी थी। निचली अदालत ने अभी भी सोनिया और राहुल को दोषी करार नहीं दिया है, बल्कि एक सामान्य अदालती प्रक्रिया के तहत दोनों को अदालत मे आने के लिए कहा है। अब सोनिया और राहुल को उस अदालत में जाना भी अपमानजनक लग रहा है और वे दोनों ऐसे बौखला गए हैं, जैसे किसी ने उनकी चैन हमेशा के लिए छीन ली हो।
मां बेटे दोनों संसद में हंगामा खड़ा कर चुके हैं। आरोप लगा रहे हैं कि निचली और उच्च अदालतों में नेशनल हेराल्ड के मसले पर उनके बारे में जो भी कहा गया है या उन्हें जो बुलाया गया है, उसके लिए मोदी सरकार जिम्मेदार है। यह साफ साफ अदालत की अवमानना है। दोनों एक तरह से कह रहे हैं कि अदालतें अपना काम केन्द्र सरकार के इशारे पर कर रही हैं। अभी कुछ दिन पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार का एक संविधान संशोधन विधेयक, जिसमें जजों की नियुक्ति के प्रावधान थे, को खारिज कर दिया और सरकार कुछ नहीं कर पाई। सरकार क्या, सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा पारित उस विधेयक को ही खारिज कर दिया। इस तरह न्यायपालिका ने अपनी स्वयतंत्रता और स्वायत्तता का परचम लहरा दिया। वह इतनी स्वतंत्र है कि सरकार क्या, वह संसद के निर्णय को भी गलत करार सकती है। अब राहुल और सोनिया व उनके दल के लोग कह रहे हैं कि न्यायपालिका केन्द्र सरकार के इशारे पर काम कर रही है। वे साफ साफ भले नहीं कहें, लेकिन वे जिस तरह से बयानबाजी कर रहे हैं और संसद से सड़क तक हंगामा खड़ा कर रहे हैं, उसका मतलब यही है।
ऐसा करके राहुल और सोनिया अदालतों की अवमानना ही नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें ब्लैकमेल भी कर रहे हैं कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करे। उन्हें लगता है कि उनके आक्रामक रुख से जज डर जाएंगे और उनके खिलाफ किसी तरह का कोई फैसला नहीं आएगा और अदालत वैसा कुछ नहीं करेगी, जिससे उन दोनों मां बेटे को कोई परेशानी हो। फिलहाल उन्हें 19 दिसंबर को उस अदालत में पेश होना है, जिसमें उनका मामला चल रहा है।
सरकार पर लगाया जा रहा आरोप बेहद ही बेहुदा और हास्यास्पद है। कांग्रेस कह रही है कि चुंकि सुब्रहृमण्यम स्वामी भाजपा के हैं और हेराल्ड वाला किया हुए मुकदमा उन्होंने ही किया है, इसलिए जो कुछ भी हो रहा है, उसमें केन्द्र की भाजपा सरकार शामिल है। यह देश में एक सामान्य ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को भी पता है कि श्री स्वामी इस तरह के अनेक मुकदमे करते रहते हैं। कुछ मुकदमे मे वे सफल भी होते हैं, पर ज्यादातर मुकदमे मे उन्हें निराशा हाथ लगती है। वे जब भाजपा में नहीं थे, तब भी इस तरह के मुकदमे किया करते थे और आज भी कर रहे हैं। पार्टी उन्हें वैसा करने से रोक भी नहीं सकती। वर्तमान मामला नेशनल हेराल्ड से जुड़ा हुआ है, जिसकी संपत्ति इस समय 20 अरब से 50 अरब रूपये तक की है। यह कांग्रेस की संपत्ति 1938 से ही रही है। लेकिन एक नई कंपनी बनाकर सोनिया और राहुल ने इसकी संपत्ति को अपनी निजी संपत्ति बना ली है। ऐसा आरोप श्री स्वामी ने लगाया है। पूरा मामला देखकर कोई आम व्यक्ति भी स्वामी की राय से सहमति व्यक्त करेगा। दिल्ली हाई कोर्ट ने भी प्रथम दृष्टि में यही पाया है कि यह कांग्रेस की संपत्ति सोनिया और राहुल द्वारा हड़प लिए जाने का मामला है, जिसमें कुछ और लोग भी सहयोगी के रूप में शामिल हैं।
यदि वह संपत्ति नहीं हड़पी गई है, तो फिर राहुल और सोनिया को डरने की क्या जरूरत है? उनके पास देश के सबसे नामी वकील हैं। मुकदमा लड़ने के लिए पैसे की कमी नहीं हैं। और भारतीय न्यायालयों मंे भले ही सभी गरीबों के साथ न्याय नहीं होता हो, लेकिन पैसे और रसूख वालों के साथ कभी भी अन्याय नहीं हुआ है।
लेकिन सोनिया और राहुल जिस तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं, उससे ऐसा लगता है मानों वे चोरी करते हुए पकड़ लिए गए हों और वे छूटने के लिए छटपटा रहे हों। अदालत ने उन्हें अभी तक दोषी नहीं माना है, लेकिन मां और बेटे दोषियों की मनोदशा को प्राप्त कर चुके लगते हैं और इस तरह हाथ पांव चला रहे हैं, जैसे डूबता हुआ कोई व्यक्ति पानी के अंदर चला रहा है। ऐसा कर राहुल और सोनिया गांधी खतरनाक खेल खेल रहे हैं। वे अपने आपको कानून से ऊपर समझने की भूल कर करे हैं। उन्हें अपनी समस्या का कानूनी हल ढूंढ़ना चाहिए। अदालतों पर इस तरह का आक्षेप लगाकर वे दोनों अपना ही नुकसान कर लेंगे। (संवाद)
भारत
नेशनल हेराल्ड मामले का राजनैतिकरण
आग से खेल रहे हैं सोनिया और राहुल
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-12-10 11:04
सोनिया और राहुल गांधी नेशनल हेराल्ड से जुड़े एक मामले मे हाई कोर्ट के एक निर्णय के बाद जो कर रहे हैं, वह इस देश की एक अभूतपूर्व घटना है। इसके पहले भी अदालती निर्णयों पर अनेक बार तल्ख टिप्पणियां होती रही है, लेकिन वे टिप्पणियां सिर्फ फैसलों पर ही होती थीं। जज और न्यायपालिका को कोई राजनेता कटघरे में खड़ा नहीं करता था। ज्यादा से ज्यादा जांच एजेंसियों की आलोचना की जाती थी और उसके द्वारा उनकी आलोचना की जाती थी, जिनके हाथ मे जांच एजेंसियां हैं। लाख कमियां होने के बावजूद न्यायपालिका और जजों के प्रति एक सम्मान का भाव होता था। नीचले अदालत के फैसले को स्वीकार या अस्वीकार करते हुए ऊपरी अदालतों में जाने की बात की जाती थी। यदि किसी तरह की टिप्पणी या सजा भी किसी अदालत ने दी है, तो उसके खिलाफ अपील करने का अधिकार रहता है और उसका हवाला देते हुए अपने आपको निर्दोष बनाए रखने का दावा भी किया जाता था। कहा जाता था कि जबतक देश की आखिरी अदालत अपना फैसला न सुना दे, तब तक किसी को दोषी नहीं माना जा सकता।