दल की प्रदेश ईकाई के अध्यक्ष ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। जद(यू) बिहार की एक क्षेत्रीय पार्टी है। इसलिए प्रदेश के अध्यक्ष का इस्तीफा निश्चय ही महत्वपूर्ण होना चाहिए। पर वैसी बात है नहीं, क्योंकि पार्टी पर कब्जा नीतीश कुमार का पहले भी रहा है और आज भी है। पार्टी के लिए वोट नीतीश कुमार के नाम पर पहले भी मिला करते थे और आगे भी नीतीश के कारण ही मिलेंगे।

इसलिए प्रदेश ईकाई का अध्यक्ष कौन रहता है अथवा कौन नहीं रहता है, इससे पार्टी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। पार्टी को जीतने लायक वोट कैसे मिलेगा, यह चिंता सिर्फ और सिर्फ नीतीश कुमार की है। कुछ महीने पहले हुए विधानसभा के उपचुनावों में नीतीश कुमार की पार्टी को भारी झटका लगा था। 18 में से सिर्फ 3 सीटों पर ही पार्टी की जीत हुई। सहयोगी भाजपा को 2 सीटें मिली थी। यानी यदि उसी नतीजे की पुनरावृति विधानसभा के आम चुनाव में होती है, तो पार्टी की लुटिया डूब ही जाएगी।

उस हार को घ्यान में रखकर नीतीश कुमार ने चुनाव जीतने की जो भावी राजनीति अपनाई है वह राज्य के अनेक नेताओं को पच नहीं पा रही है। हार को जीत में बदलने के लिए नीतीश ने अपने मूल आघार को मजबूत करना शुरू कर दिया है। उनका मूल आघार कुर्मी और कोयरी जातियों का उन्हें मिलने वाला समर्थन रहा है। इस आघार को पुख्ता बनाकर वे गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों का ज्यादा से ज्यादा समर्थन हासिल करना चाहते हैं। यदि वे इसमें सफल हो जाते हैं, तो फिर उनको हराना आसान नहीे होगा। लेकिन उनकी इन कोशिशों का अगड़ी जातियों के पार्टी नेताओं द्वारा विरोघ हो रहा है। उनके खिलाफ हो रही बगावतों का राजनैतिक आघार यही है।

बगावत के स्वार्थगत कारण भी है। जब लोकसभा का चुनाव हो रहा था, तो कुछ नेता चुनाव के बाद केन्द्र में साथ कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता में भागीदारी करना चाह रहे थे। वे सांप्रदायिकता को नाम लेकर भाजपा से अलग कांग्रेस के साथ हाथ मिलाने के पक्ष में थे। लेकिन काग्रेस की सीटों की संख्या बढ़ गई और उन्हें जनता दल (यू) के साथ हाथ मिलाने की जरूरत ही नहीं पड़ी। नीतीश कुमार भी अपनी सरकार को संकट में डालकर अपने दल के कुछ सांसदों को केन्द्र में मंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे। इसलिए केन्द्र मंे मंत्री बनने की तमन्ना पार्टी के कुछ सांसदों के मन में ही रह गई।

अब एक बार फिर उन सांसदों के मंत्री बनने की तमन्ना फिर जोर मारने लगी है। इसके लिए वे पार्टी में विभाजन की हद तक जाने को भी तैयार हैं। विभाजन लायक संख्या जुटाने की स्थिति में भी वे हैं। नीतीश कुमार राजनैतिक पैरवी को बढ़ावा नहीं देते, इसलिए अधिकांश सांसद उनसे नाराज ही रहते हैं। इसके अलावा मुख्यमंत्री ने अगला चुनाव जीतने के लिए सामाजिक समीकरण की जो रणनीति बनाई है, उससे भी ये अनेक सांसद नाराज हैं।

नीतीश की रणनीति बहुत सीधी है। जिन जातियों का मत उन्हें नहीं मिलना है, उनके नेताओं को वे ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते, क्योंकि वैसा करने से उनकी समर्थक जातियों के लोग नाराज हो जाएंगे। 18 विधानसभा सीटों के लिए हुई पिछले उपचुनावों में उन्होने देख लिया कि अगड़ी जातियों के लोग उनको अब तेजी से छोड़ रहे हैं। वे कांग्रेस की ओर भी जा रहे हैं और लालू. पासवान की ओर भी। राहुल गाघी के दौरों के बाद वे कांग्रेस की ओर और भी मुखातिब होगे। नीतीश चाहे उनके नेताओं को जितना तवज्जो दें, वे आगामी विधानसभा में उनका साथ पहले की तरह नहीं देने वाले। यादव तो पहले से ही लालू के साथ हैं। अपने जातीय उम्मीदवारों के कारण जो थोड़े बहुत उनकी पार्टी के साथ हो जाते थे, वे शायद इस बार उनका साथ पूरी तरह छोड़ दें। इसलिए, नीतीश ने अब गैर यादव पिछड़ों और गैर पासवान दलितों को अपने साथ जोड़ने के लिए ज्यादा से ज्यादा कोशिशें शुरू कर दी हैं। उनकी इन कोशिशों का पार्टी के अंदर से जितना विरोघ होगा, उनकी कोशिशें उतनी ही ज्यादा सफल होगी।

बिहार में पिछड़े वर्गों के लोगों की संख्या करीब 70 फीसदी है। इसमें 12 फीसदी मुस्लिम पिछड़ा वर्ग है। 16 फीसदी दलित और 14 फीसदी अगड़े हैं। 14 फीसदी अगड़ों में मुस्लिम अगड़ों की संख्या 4 फीसदी है। यानी हिन्दू अगड़े कुल आबादी के 10 फीसदी हैं। कम आबादी के बावजूद उनका प्रतिनिघित्व ज्यादा रहा है और लालू राबड़ी के 15 सालों के शासनकाल के बावजूद वे कमजोर नहीं हुए हैं। लालू के पतन के बाद उनकी मजबूती और भी बढ़ी है, लेकिन उनकी संख्या ज्यादा नहीं है। गैरमुस्लिम पिछड़े वगों में यादवों की संख्या 14 फीसदी है। उन्हे हटाकर शेष गैर मुस्लिम पिछड़ों की आबादी 44 फीसदी है। नीतीश की जीत या हार में इस 44 फीसदी आबादी का भारी योगदान होगा। मुख्यमंत्री ने मुस्लिम पिछड़ों को भी अपने साथ जोड़ने की बहूत कोशिश की है, लेकिन वे उसमें सफल नहीं हो पाए है। उनके मतों का बंटवारा मुख्य रूप से राजद और कांग्रेस के बीच में ही होना है।

दलितों में पासवान पूरी तरह से रामविलास के साथ हैं। रविदसिया दलितों का रुझान मायावती की ओर है। उनमें से कुछ नीतीश की ओर भी आ सकते हैं। शेष दलितों के बीच नीतीश की स्थिति बेहतर है। यानी नीतीश ने 50 फीसदी आबादी से भी ज्यादा के बीच अपने आपको मजबूत बनाने का अभियान शुरू कर दिया है। और उसका विरोध ही उनकी पार्टी के नेता कर रहे हैं। यह विरोघ सांसदों के बीच ज्यादा है, क्योंकि अब सवा चार साल के बाद ही उन्हें चुनाव लड़ना हैं। पर विधायकों को तो इसी साल चुनाव में जाना है। चुनाव में जाने के लिए उन्हे पार्टी से टिकट भी पाना है। इसलिए उनके बीच नीतीश कुमार के बीच कोई असंतोष नहीं दिखाई पड़ रहा है, क्योंकि उन्हे पता है कि पार्टी के लिए वोट का जुगाड़ तो नीतीश की करेंगे। उन्हें इस बात की पूरी समझ है कि नीतीश को कमजोर करने का मतलब उनका अपना नुकसान होना है।

सांसदों के बीच दल के विभाजन की बातें भी सामने आ रही हैं। यदि किसी कारण वश केन्द्र की सरकार को यूपीए के बाहर से लोकसभा सांसदांे का इंतजाम करना पड़ा, तों जनता दल (यू) के अनेक सांसद उनके दरवाजे पर खड़े दिखाई दे सकते हैं। लेकिन इस सबसे यह साबित नहीं होता कि नीतीश कमजोर पड़ रहे हैं। सच कहा जाए तो पार्टी के कुछ नेताओं द्वारा उनका विरोघ करने से उनकी स्थिति लोगों के बीच मजबूत ही होगी। (संवाद)