यह यूपीए सरकार की एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना थी। कहा जाता है कि अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सलाह पर सोनिया गांधी ने इसे लागू करने के लिए कहा था। यह गांवों की बेरोजगारी को दूर करने की अब तक की केन्द्र सरकार की सबसे बड़ी योजना मानी जाती है। इसके तहत रोजगार चाहने वाले किसी भी ग्रामीण व्यक्ति को 100 दिनों के लिए रोजगार की गारंटी का प्रावधान है। यदि सरकार 100 दिनों का काम किसी को नहीं दे सकती तो उस व्यक्ति का हक बनता है कि वह बेरोजगारी भत्ता हासिल करे।

सवाल उठता है कि क्या इस कानून पर पूरी तरह अमल हो पाया है? जवाब एक ही है और वह है कि इस कानून का पालन नहीं किया जा सका है। उदाहरण के लिए एक व्यकित के लिए साल में सौ दिनों तक काम दिया जाना था, लेकिन यह लक्ष्य पूरा नहीं किया जा सका। कहीं कहीं तो 40 दिनों के काम तक नहीं दिए जा सके।

काम नहीं मिलने पर बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिये जाने का प्रावधान था, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ। इसकी एक विसंगति यह रही है कि रोजगार पाने वालों को भुगतान करने का जिम्मा तो केन्द्र सरकार का है, लेकिन रोजगार न पाने वालों को बेराजगारी भत्ता देने का जिम्मा इस कानून के तहत राज्य सरकार का है। इस विसंगति का प्रभाव इसके अमल पर पड़ा है। इस योजना के तहत अकुशल मजदूरों को ही काम देने का प्रावधान है। कुशल मजदूरों को इससे दूर रखकर इस कानून को पहले से ही कमजोर बना कर रखा गया है। जाहिर है, सरकार यह मान रही है कि कुशल मजदूरों को काम पाने में दिक्कत नहीं होती। पर सच्चाई यह नहीं है।

यह गरीबों के लिए बनाई गई योजना है, लेकिन यदि हम इसके तहत कोष के बंटवारे को देखें, तो पाते हैं कि उन राज्यों के पास ज्यादा पैसे गए है, जहां गरीबों की संख्या कम है और उन राज्यों को पैसे कम गए हैं, जहां गरीबों की संख्या बहुत ज्यादा है। तमिलनाडु और बिहार में इस पर किए गए खर्च की तुलना कर इस बेतुकापन को देखा जा सकता है। जाहिर है, गरीबों को राहत पहुंचाने वाली यह योजना गरीब राज्यों तक अपनी अच्छी पहुंच बनाने में विफल रही है। इसके कारण क्षेत्रीय असंतुलन कम होना चाहिए था, लेकिन इसने क्षेत्रीय असंतुलन बढ़ाने का ही काम किया है।

इस कानून की एक खामी यह भी है कि यह रोजगार मिटाने की एक ऐसी योजना है, जिसमें पूंजी निर्माण का उद्देश्य नदारद है। यानी मजदूर काम कर रहे हैं, तो उनके काम करने से कुछ निर्माण भी होना चाहिए और वह दिखना भी चाहिए, लेकिन उसके द्वारा किए गए निर्माणों का सही रिकाॅर्ड रखा जाय, यह आवश्यक नहीं है। इसके कारण पता नहीं चलता कि पैसे यदि मजदूरों को गए भी, तो उन पैसों से हुए क्या?

कहने को तो इस योजना के आरंभ के 10 साल पूरे हो गए हैं, लेकिन यह 10 साल पहले देश के कुछ जिलों में ही शुरू हुई थी। देश के सभी प्रदेशों के सभी जिलों में इसे 2008 में लागू किया गया था। इसलिए हम यह भी नहीं कह सकते कि इस योजना के 10 साल पूरे हो गए हैं। ज्यादा से ज्यादा हम यह कह सकते हैं कि इस कानून के बने 10 साल पूरे हो चुके हैं।

हमारी योजनाओं की समस्या यह रही है कि इनमें लक्ष्यों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता रहा है और उद्देश्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इसलिए सरकारी आंकड़े में लक्ष्य तो पूरे दिखा दिए जाते हैं, लेकिन उद्देश्य पूरे नहीं हो पाते और यहीं वह योजना पराजित हो जाती है।मनरेगा के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ है। हालांकि इसमें तो स्थिति और भी बदतर है। जितना लक्ष्य था, वह भी पूरा नहीं हो सका है और उस लक्ष्य से जो उद्देश्य हासिल होने थे, वे तो बिल्कुल भी नहीं हुए हैं। इसका कारण हमारी सरकारी मशीनरियों में व्याप्त भ्रष्टाचार है और भ्रष्टाचार की गुंजायश इसकी नीति में ही छोड़ दी गई थी।

जब रोजगार देकर किए गए काम का सही सही रिकाॅर्ड नहीं रखने का विकल्प अमल करने और करवाने वाली मशीनरी के पास मौजूद हो, तो फिर भ्रष्टाचार को कौन रोक सकता। इसका नतीजा यह होता है कि बिना काम कराए ही पैसे बांट दिए जाते हैं और बांटे गए पैसों में बंदरबाट कर दिया जाता है। मजदूरों को जितना पैसा मिलना चाहिए, उतना उन्हें नहीं मिलता, फिर भी वे खुश रहते हैं, क्योंकि उन्हें बिना काम किए जो पैसा मिल गया और उसका एक हिस्सा दूसरे लोगों के पास जाय, इसकी उन्हें शिकायत भी नहीं रहती, क्यांेकि उन्हें जो मिला वह मुफ्त में ही मिल गया।

भ्रष्टाचार सरकार की सभी योजनाओं में होता है, लेकिन मनरेगा में जितना भ्रष्टाचार हो रहा है, उतना शायद ही किसी और योजना में होता होगा। भ्रष्टाचार के अलावा समय पर पैसा नहीं मिलने की शिकायतें भी खूब आती हैं। कानून के अनुसार 15 दिनों में ही भुगतान कर दिया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा विरले ही होता है।

इस महत्वाकांक्षी कानून के 10 साल पूरे होने के बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए और इसकी कमियों को समाप्त करने की कोशिश की जानी चाहिए। सबसे पहले तो काम है, उसे पूंजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण से जोड़ दिया जाना चाहिए। इससे क्या निर्माण हुए हैं, उनका पूरा रिकार्ड होना चाहिए। दूसरा, मजदूरों के बैंक खाते में सीधे पैसे जाने चाहिए और उनके खातों को आधार के साथ लिंक कर दिया जाना चाहिए, ताकि कोई फेक खाता खोलकर उसमें पैसे डाल न सके। गांवों में विकास की अन्य अनेक योजनाएं भी चलती रहती हैं। उन योजनाओं मंे मजदूरी के भुगतान के लिए मनरेगा के कोष का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। (संवाद)