राम कथा की कालजयी प्रकृति ने सारी दुनिया, सारी अभिव्यक्तियों और मानवीयता को भी व्याप्त कर लिया है। तुलसीदास ने अपनी कृति का नामांकरण 'रामचरितमानस' किया। वे कहते हैं कि यह रचना शिव की है, शिव के लिए है और नामकरण भी उन्होंने ही किया है।

रचि महेश निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥ तातें रामचरित मानस बर। धरेउ नाम हियंॅ हेरि हरषि हर॥

इस कथा को निर्मल कथा कहा और सुनने से काम, मद, दंभ के नष्ट होने की बात कही है। मन में विषयाग्नि में जलने पर भी शांति देने की यह कथा है। यह सुहावनी और पवित्र कथा शिव ने ही सुनायी है, जो तीनों प्रकार के दोषों, दुखों और दरिद्रता की अग्नि के साथ ही व्यक्ति के पापों को नष्ट करने वाली है।

रामचरितमानस शिव की कृपा से प्रकट हुआ है और इसके प्रभाव से सभी को मंगल प्राप्त होता है। मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की द्वारा इसका स्पष्ट निर्देश किया गया है। यह कथा सुनते ही सती को मोह हो गया था, उन्हे पुन जन्म लेना पड़ा, परंतु रामचरितमानस सुनने के बाद ऐसा होने का कोई प्रमाण नही मिलता है। सती ने अगस्त्य के मुख से कथा, शिव मुख से भक्ति सुनी थी। यह रामचरितमानस एक साथ कथा और भक्ति दानों ही इस समाधि टू टने के बाद सती के लिए हरि कथा रसाला का संबोधन किया गया है। राम कथा और हरि भक्ति मिलकर हरि कथा रसाला बनी है।

जब दंपत्तियों के बीच संशय, अंधविश्वास आदि आ जाता है तो राम कथा ही उन्हें श्रद्धा, विश्वास के रुप में संवार सकती है। शिव के मन में विशेष विषाद इसलिए पैदा हुआ कि सती सीता बनना चाहती थी। 'सती ' यदि पुनीत हैं तो 'सीता' बनने के बाद वह 'परम पुनीता' हो गयी। पहले वे प्रेम के योग्य थीं परंतु अब वे आराध्य हो गयी है। इसका समाधान भी वे अब राम से ही चाहते हैं। सती के उस शरीर से संपर्क न करने का संकल्प तो लिया परंतु ऐसी दशा में ही मानस की रचना की और बताया कि राम कथा 'संशय' नाशक और 'काल छेदक ' है। इसे विमल कथा भी कहा और काम, मद और मोह को नष्ट करने वाला कहा। इसके सुनने में विश्राम पाने की बात कही है।

राम कथा के अंत में उपसंहार करते हुए शिव ने कहा कि यह कथा छिपा रखी थी परंतु तुम्हारी अधिक प्रीत देखकर यह कथा कह चुका हूँ।

अति अनुरूप कथा मैं भाषी। जद्यपि प्रथम गुप्त कर राखी॥ तव मन प्रीति देखि अधिकाई। तब मैं रघुपति कथा सुनाई॥

यहां भी राम कथा के महत्त्व को कलिमल शामक तथा मनोमल हारक बताते हुए संसृति रोग की संजीवनी मूल कहा है -

राम क था गिरिजा मैं वरनी। कलिमल समनि मनोमल हरनी॥ संसृति रोग संजीवन मूरी। राम क था गावहिं श्रुति सूरी॥

पार्वती ने अंतत स्वीवृति दी है कि उनका पूर्व जन्म से दृढ़ हुआ संदेह अब नष्ट हो चुका है।

नाथ कृपा मम गत संदेहा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥

इसके समापन श्लोक में भी रामचरितमानस का समग्र फल कथन किया गया है कि यह पुण्य तो है परंतु पाप नाशक भी है, कल्याणमय भी है साथ ही विज्ञान और भक्ति को देने वाला भी है। यह माया और मोह के मल को दूर करने वाला है, साथ ही निर्मल प्रेम जल का प्रवाह भी है। इसमें जो लोग भक्ति पूर्वक डुबकियां लगाते हैं वे संसार रूपी सूरज की भयंकर किरणों से कभी भी तपाये नहीं जा सकते हैं।

इसी प्रकार शिव ने रामचरितमानस को भक्ति एवं कथा दोनों को एक साथ समाधि दशा में लिखा। इस रचना से संशयों का उन्मूलन और कहने, सुनने और अनुमोदन करने वाले सभी जनों का कल्याण होता है। समाधि से पूर्व भी राम नाम जप शिव ने किया और समाधि के अंत में भी राम नाम ही स्मरण किया है। इससे यह स्पष्ट है कि-

एही महं आदि मध्य अवसाना। प्रभु प्रतिपाद्य राम भगवाना॥ (नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)