यदि इस तरह का गठबंधन हो गया, तो एक विचित्र स्थिति पैदा हो जाएगी। दोनों पक्ष अभी असमंजस की स्थिति में हैं, क्योंकि पश्चिम बंगाल के साथ साथ ही केरल में भी विधानसभा के आमचुनाव होने हैं। वहां मुख्य मुकाबला वामपंथियों और कांग्रेस के बीच ही होने वाला है। यदि पश्चिम बंगाल मे दोनों के बीच समझौता होता है, तो वे केरल के मतदाताओं को अपनी अपनी विचारधारा के बारे में क्या बताएंगे?
असमंजस दोनों तरफ है। कांग्रेस में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जो गठबंधन चाहते हैं और कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो गठबंधन के खिलाफ है। वामपंथियों के बीच भी इस मसले पर दो फाड़ की स्थिति बनी हुई है। लेकिन दोनों को पता है कि यदि गठबंधन नहीं हुआ, तो उनके वोटो मंे बिखराव होगा और उसका फायदा तृणमूल कांग्रेस को ही होगा।
वामपंथियों के लिए कांग्रेस से हाथ मिलाने का मतलब है एक बार फिर पश्चिम बंगाल की राजनीति में प्रासंगिक हो जाना। यदि वे पश्चिम बंगाल की राजनीति में प्रासंगिक हुए, तो देश की राजनीति में भी प्रासंगिक होने की उम्मीद कर सकते हैं। अभी तो वे विपक्ष की भूमिका निभाने में भी अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं। इसका कारण है कि पश्चिम बंगाल की विधानसभा में उनकी संख्या बहुत कम है और लोकसभा व राज्य सभा में तो बहुत ही कम है। अब सीपीएम और कांग्रेस यह महसूस कर रही हैं कि तृणमूल कांग्रेस को पराजित करने के लिए उन्हें एक साथ आना होगा।
यदि हम 2014 में हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करते हैं, तो पाते हैं कि उसमें कांग्रेस को 9 दशमलव 7 फीसदी वोट मिले थे और 28 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी। दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस को 214 सीटों पर बढ़त के साथ 30 दशमलव 8 फीसदी वोट मिले थे। वाममोर्चा को उस चुनाव 28 सीेंटों पर बढ़त और 29 दशमलव 9 फीसदी वोट मिले थे। भारतीय जनता पार्टी को 17 फीसदी वोट और 24 सीटों पर बढ़त हासिल हुई थी।
यदि उस चुनाव की तस्वीर को देखते हुए कांग्रेस और वामपंथियों के गठबंधन को हकीकत मानते हैं, तो कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन को 100 सीटें मिल सकती हैं और तृणमूल कांग्रेस को 178 सीटें। भारतीय जनता पार्टी को तब अपने ही दम पर 18 विधानसभा की सीटें मिल सकती हैं।
यहां भारतीय जनता पार्टी एक महत्वपूर्ण फैक्टर है। नरेन्द्र मोदी के जादू के कारण पिछले लोकसभा चुनाव में वहां उसे 17 फीसदी मत मिले थे, लेकिन स्थानीय निकायों के चुनाव में उसके वोटों का प्रतिशत बहुत गिर गया, जिसके कारण लगता है कि वहां मोदी का जादू या तो चल नहीं रहा है या बहुत कमजोर हो गया है। वैसे भी पड़ोसी बिहार में मोदी का जादू नहीं चला और उसके पहले दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव में तो मोदी के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का सूफड़ा ही साफ हो गया था। अब तो मोदी का जादू बिहार चुनाव के समय से भी कम हो गया है और देश भर में केन्द्र सरकार के खिलाफ असंतोष व्याप्त हो रहा है।
भारतीय जनता पार्टी को वहां उत्थान वामपंथी पार्टियों की कीमत पर ही हुआ था और अब जब उसका पतन हो रहा है, तो उसका लाभ वामपंथी दलों को ही हो सकता है। इसलिए भाजपा का पतन वामपंथियों के लिए एक शुभ संकेत है। (संवाद)
पश्चिम बंगाल की राजनीति
ममता विरोधी अपना मतभेद भूल रहे हैं
कल्याणी शंकर - 2016-02-19 12:53 UTC
पश्चिम बंगाल में चुनाव के कुछ ही सप्ताह बच रह गए है। अब वहां की चुनाव पूर्व राजनैतिक स्थिति कुछ कुछ साफ होने लगी है। तृणमूल कांग्रेस के विरोधी वामपंथी और कांग्रेस आपस में रणनीतिक समझौता करने के लिए तैयार दिख रहे हैं। यदि यह प्रयोग सफल रहा, तो इसे 2019 के लोकसभा चुनाव तक बढ़ाया जा सकता है। यह एक जुआ है और यह पता नहीं कि क्या वामपंथी और कांग्रेसी गठबंधन चुनाव परिणामों को प्रभावित कर सकता है।