संविधान संशोधन के बावजूद छोटे बों की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था २१वीं सदी में दिवास्वप्न है। लेकिन पूर्वकाल में शिक्षा देना एक पवित्र कर्त्तव्य था। आचार्य इसीलिए 'देवो भव' - देवतुल्य थे। गुरुदक्षिणा शिक्षा समाप्ति का अनुष्ठान था। याज्ञवल्क्य ने शिक्षा समाप्ति के पूर्व जनक से कोई भी उपहार स्वीकार नहीं किया। शिष्य द्वारा आचार्य को समर्पित ऐसी भेंट स्वैच्छिक थी। यह पारिश्रमिक का विकल्प नहीं थी। बृहस्पति स्मृति के अनुसार विद्यादान पवित्रतम कर्त्तव्य था और भूमिदान से भी श्रेष्ठ था। गरीबी के आधार पर किसी भी छात्र का प्रवेश न लेना निंदनीय था। आचार्य, विद्यार्थी, अभिभावक, समाज और राजा आदर्श शिक्षा के संचालन को 'पवित्र कार्य' मानते थे। समाज सजग और जागरूक था। छात्र भिक्षा मांगते थे। ऐसी भिक्षा देने से इंकार करना पाप माना जाता था। गोपथ ब्राह्‌मण में इसका उ्वेख है। उत्सवों-पर्वो के अवसर पर योग्य विद्यार्थी और आचार्य समाज द्वारा सम्मानित किए जाते थे। तक्षशिला में ऐसे सम्मान कार्यक्रम अक्सर होते थे। इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं। जातकों में ऐसी अनेक कथाएं हैं।

फाययान ५वीं सदी में भारत आया था। उसके यात्रा विवरणों में समाज द्वारा शिक्षा तंत्र को आर्थिक सहायता देने के उ्वेख हैं। 'पृथ्वीराज विजय' (१०वीं सदी) में अजमेर के आसपास अनेक शिक्षा संस्थाओं के उ्वेख हैं। 'कथासरितसागर' के अनुसार विश्वविद्यालय को धनिक नागरिकों द्वारा आर्थिक सहयोग दिये जाते थे। संपन्न लोग शिक्षा संस्थां भी बनाते थे। अपने परिजनों की स्मृति में शिक्षण संस्थाएं चलाने की परंपरा बहुत प्रतिष्ठित थी। वेद, उपनिषद्‌ और ऐसा ही ढेर सारा वैज्ञानिक, सामाजिक साहित्य पढ़ाने में जनसामान्य की रूचि थी लेकिन राजा भी पीछे नहीं थे। शिक्षा देना राज कर्त्तव्य था। महाभारत, अर्थशास्त्र, शुक्रनीति, याज्ञवल्क्य स्मृति और मनुस्मृति ने शिक्षा व्यवस्था को राजा का मुख्य कर्त्तव्य बताया है। नालंदा में गुप्त राजाओं का सहयोग था। विक्रमशिला की स्थापना परमार राजा धर्मपाल ने की थी। राजा भोज ने धार में भोजशाला की स्थापना की थी। चौहान राजा विग्रहराज ने श्रावस्ती में विद्यालय के साथ मंदिर भी बनाया था। अशोक, कनिष्क, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) हर्ष, धर्मपाल, भोज आदि राजा शिक्षा व्यवस्था में रुचि क े लिए प्रख्यात हैं। नालंदा विश्व विख्यात शिक्षा केन्द्र था। चीनी यात्री हुएनसांग के अनुसार नालंदा के लिए ५०० व्यापारियों ने १० कोटि स्वर्ण मुद्राएं देकर जमीन खरीदी थी। अनेक राजपरिवारों ने भी नालंदा को सहायता दी थी। ईत्सिंग ने नालंदा के लिए भूराजस्व का एक बड़ा हिस्सा देने का भी उ्वेख किया है।

प्राचीन शिक्षा व्यवस्था राजपोषित होने के बावजूद राजनियंत्रित नहीं थी। अंग्रेजी प्रभाव वाली आधुनिक शिक्षा व्यवस्था राजपोषित है, वित्तविहीन भी है लेकिन दोनों ही व्यवस्थाओं में राज्य का नियंत्रण है। सरकारें बताती हैं कि आर्य भारत पर हमला करके यहां घुस आये थे। देश के अधिकांश परिश्रमी शोधकर्त्ता, विद्वान व प्रोफेसर ऐसा नहीं मानते। आधुनिकतम शोधों के भी निष्कर्ष हैं कि आर्य भारत के ही मूल निवासी है। लेकिन सरकारें आर्यो को हमलावर ही बताती है, विश्वविद्यालय यही पाठ पढ़ाते भी हैं। प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था राजनियंत्रण से मुक्त थी। शिक्षा व्यवस्था चलाना राज और समाज का कर्त्तव्य था, अध्ययन-अध्यापन के विषय तय करना आचार्य कुल का उत्तरदायित्व और अधिकार था। प्राचीन भारतीय शिक्षा को अंग्रेजी चश्में से पढ़ने वाले विद्वान राजतंत्र में शिक्षा विभाग न पाकर निराश होते हैं। वस्तुत यह पिछड़ेपन की नहीं स्वायत्तता की ही निशानी है। तब शिक्षा राजव्यवस्था से मुक्त थी, मुक्ति का साधन थी। यह आतताई राजा के विरूद्ध विद्रोह का उपदेश देती थी।

मध्यकालीन यूरोप की शिक्षा व्यवस्था संगठित चर्च के नियंत्रण में थी। भारत में शिक्षा का लक्ष्य 'मुक्त मनुष्य' का निर्माण करना था - 'सा विद्या या विमुक्तये'। यूरोप की शिक्षा व्यवस्था का उद्‌देश्य आस्थावादी ईसाई समाज गढ़ना था। ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज आदि संस्थांए भी राज आदेशों या संसदीय कानूनों से नहीं बनी। भारत की प्रेरणा से विद्वानों ने ही ऐसी संस्थाएं गढ़ी लेकिन चर्च का प्रभाव था। यूरोप की शिक्षा व्यवस्था १९वीं सदी तक चर्च और निजी घरानों के अधीन ही थी। इंग्लैण्ड में पहली बार सन्‌ १९३२ ई० में प्राइमरी शिक्षा के लिए राजकोष से २००० अमेरिकी डालर का प्रबंध हुआ। फ्रांस ने राज्य क्रान्ति के बाद १७८८ में यही काम शुरू किया। यूरोप में राजपोषण का यही कार्य सबसे पहले जर्मनी में शुरू हुआ। भारत के राजा-महाराजा, समाज के अग्रणी महाजन शिक्षा व्यवस्था को लेकर वैदिक काल से ही सजग और सक्रिय रहे हैं। भारत में आचार्य कुल की अति प्राचीन परम्परा है। यह उपलब्ध इतिहास में तथ्य है। यह प्राचीन महाकाव्यों में है। यह पुराणों, ब्राह्‌मणों में है। उपनिषद दर्शन का विकास ही गुरुकुलों आश्रमों में हुआ था। प्रश्न, प्रतिप्रश्न, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सतत्‌ जिज्ञासा का भारतीय वातावरण समूची दुनिया के लिए अध्ययन और शोध की प्रेरणा है। गांधी जी स्वाभाविक ही इस पर मोहित थे।

कुछेक विद्वान भारतीय शिक्षा के विकास का श्रेय अंग्रेजी राज को देते हैं। अंग्रेज ऐसे ही थे तो उन्होंने अपने देश और प्रभाव क्षेत्र में १८०० ई० के पहले भारत जैसी दार्शनिक और वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति का विकास क्यों नहीं किया? अंग्रेजी राज को श्रेय देने वाले विद्वानों को प्रख्यात गांधीवादी चिन्तक धर्मपाल द्वारा लिखित 'ब्यूटीफुल ट्री'पढ़नी चाहिए। धर्मपाल जी ने अंग्रेजीराज द्वारा संकलित आंकड़े ही परिश्रमपूर्वक खोजे हैं। सर थामस मुनरो ने २ जुलाई १९२२ के दिन भारतीय शिक्षा पर गहन सर्वेक्षण के आदेश दिये थे। आदेश के साथ जिलाधिकारियों को एक फार्म/प्रपत्र/ भी भेजा गया था। प्रपत्र के जरिए तब पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के नाम, स्कूलों में शिक्षा का समय, मासिक या वार्षिक शुल्क के विवरण और विद्यालयों को मिलने वाली आर्थिक सहायता के स्रोतों की जानकारी मांगी गयी थी।पूंछा यह भी गया था कि क्या विद्यालयों में धर्मशास्त्र, कानून और ज्योतिष जैसे विषय भी पढ़ाए जाते हैं? दरअसल, अंग्रेजी सत्ता भारत पर मजबूत शासन चाहती थी। इसके लिए शिक्षा तंत्र पर वास्तविक नियंत्रण की जरूरत थी। इसके लिए पहले से जारी शिक्षा व्यवस्था और शिक्षा तंत्र के अध्ययन की आवश्यकता थी। अंग्रेजी राज ने इसीलिए सर्वेक्षण करवाया था।

सर्वेक्षण से चौंकाने वाले नतीजे आये। सर्वे का कार्य बाम्बे प्रेसीडेंसी में १८३० तक व मद्रास प्रेसीडेन्सी में १८२६ तक हुआ। बंगाल और पंजाब में भी सर्वे का काम हुआ। मद्रास प्रेसीडेंसी के २१ जिलों के सर्वेक्षण में १०,९४ शिक्षण संस्थांए 'कालेज' की हैसियत में थीं। वेद, विधिशास्त्र, तर्कशास्त्र और ज्योतिष अध्ययन के भी आंकड़े उत्साहवर्द्धक थे। सर्वे के अनुसार सभी वर्गो, जातियों, उपजातियों के हजारों छात्र अध्ययनरत थे। ईसाई मिशनरी (डब्लू एडम) का बंगाल सर्वेक्षण 'ए रिपोर्ट आन दि स्टेट आफ एजूकेशन इन बंगाल' चर्चा का विषय बना। बंगाल पर एडम की रिपोर्ट कई दफा छपी। १९८३ में प्रति विद्यालय एक अध्यापक वदम ेबीववस नाम से इसकी भारी चर्चा हुई। अनेक सर्वेक्षणों के बाद विलियम एडम का निष्कर्ष था कि बंगाल और बिहार के प्रत्येक गांव में कम से कम एक स्कूल था। बंगाल और बिहार के १५०७४८ गांव में १००००० स्कूल थे। बंगाल के प्रत्येक जिलों में कम से कम १०० उ शिक्षण संस्थाएं थी। मुम्बई प्रेसीडेन्सी और पंजाब के भी निष्कर्ष ऐसे ही थे। देश में लाखों स्कूल थे। वे प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली का विस्तार थे। अंग्रेजी राज ने ये स्कूल नहीं चलवाये थे।

शिक्षा भारत में धर्म तत्व थी। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का साधन थी। भारत का धर्म अंध आस्था नहीं है। इसका विकास वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही हुआ। धर्म की शिक्षा का तात्पर्य यहां कर्मकाण्ड,पूजापाठ की विधि रटाना नहीं था। धर्म का तात्पर्य यहां स्वयं का तथा स्वयं के स्वार्थ का निश्रेयस और राष्ट्र का अभ्युदय था। स्वाभाविक ही गांधीजी द्वारा धार्मिक शिक्षा की भी पैरवी की गयी है। कुछेक विद्वान इसे अंध आस्थावादी बताते हैं लेकिन गांधी जी ने स्वयं धर्म की शिक्षा को नीति की शिक्षा बताया है। सबसे पहले तो धर्म की शिक्षा या नीति की शिक्षा दी जानी चाहिए। (हिन्द स्वराज पृष्ठ-९२) यहां धर्म का मतलब नीति है। समाज को ठीक दिशा में ले जाने वाली आचार सारिणी का नाम 'नीति' है, इसी की परम्परा का नाम रीति है। रीति वैदिक कालीन 'ऋत' का ही देशज रूप है। भारत में धर्म का मतलब अंधआस्था नहीं है। यहां धर्म का अर्थ व्यक्ति या वस्तु का स्वभाव है। प्राणी या वस्तुए स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं। सृष्टि में परस्परावलम्बन है। इसलिए सृष्टि के प्रत्येक अणु-परमाणु में समूची सृष्टि की व्यापकता है। भारत का धर्म इसी व्यापकता की धारणा है और शिक्षा नीति इसी की सहचरी है। (नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)