मुख्यमंत्री जयललिता एक बार फिर सत्ता में आने के लिए एड़ी चोटी का पसीना एक कर रही हैं। कनार्टक हाई कोर्ट द्वारा एक मुकदमे में बरी होने के बाद वह लगातार उस दिशा मे कोशिश कर रही हैं। अभी इस समय वह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुका है, लेकिन जयललिता को उम्मीद है कि वहां से भी उन्हें क्लीन चिट मिल जाएगी।

जहां तक चुनाव की बात है, तो जयललिता विरोधी वोटों का बंटवारा हो जाने से मुख्यमंत्री का काम आसान होता दिखाई पड़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव मे जयललिता की पार्टी ने प्रदेश की 39 में से 37 सीटो पर जीत हासिल कर ली थी और कुल मतों का 44 फीसदी से भी ज्यादा उसे ही मिला था। 2011 के चुनाव मंे भी जयललिता की पार्टी को 151 सीटें हासिल हुई थीं और 38 फीसदी से ज्यादा मत उसे मिले थे। लोकसभा चुनाव में जयललिता का किसी पार्टी से गठबंधन नहीं था, लेकिन 2011 के चुनाव में उसने कई पार्टियों से गठबंधन कर रखा था। इस बार चुनाव में जयललिता ने किसी से भी गठबंधन नहीं किया है।

जयललिता ने दूसरी पंक्ति के नेताओं को अभी तक तैयार नहीं किया है। उन्हें लगता है कि ऐसा करने की कोई जरूरत ही नहीं है। समस्या यह है कि इस समय उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं चल रहा है और चुनाव अभियान को उनका खराब स्वास्थ्य प्रभावित कर सकता है। यदि वह चुनाव हार गईं, तो उन पर विरोधियों का कहर बरप सकता हैं

करुणानिधि का भी बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। वे पिछले 5 दशक से भी ज्यादा समय से अपनी पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और पांच बार प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यदि पार्टी चुनाव में हारी, तो करुणानिधि की राजनीति यहीं समाप्त हो जाएगी, क्योंकि उनकी उम्र भी बहुत ज्यादा हो गई है। इस समय उनकी उम्र 93 साल है और अगले विधानसभा चुनाव में वे 98 साल के हो जाएंगे। यदि वे यह चुनाव जीत गए, तो अपने बेटे स्टालीन के हाथ में सत्ता और पार्टी सौंप देंगे। उन्हें अपने घर की लड़ाई में भी संतुलन बैठाना होगा। उनकी पार्टी को 2जी घोटाले का सदमा लगा है। इस सदमे से अभी तक वे उबरे नहीं हैं। यही कारण है कि करुणानिधि छोटी छोटी पार्टियों से गठबंधन करने की कोशिशों में लगे हुए हैं। वे 20 पार्टियोंसे अबतक मिल चुके हैं।

जहां तक डीएमडीके के प्रमुख विजयकांत का सवाल है, तो उन्हें इस चुनाव में अपनी प्रासंगिकता साबित करनी है। क्या उन्हें लोग जरूरत से ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं? इस सवाल का जवाब भी इस चुनाव के नतीजों से मिल जाएगा। उन्होंने अपनी पार्टी 2005 में बनाई थी। 2011 के चुनाव में उन्होंने जयललिता की पार्टी के साथ गठबंधन किया था, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में वे भाजपा के साथ थे। माना जाता है कि तमिलनाडु के कुछ हिस्से में इसका अच्छा प्रभाव है। इसने जयललिता के साथ गठबंधन कर 2011 के विधानसभा चुनाव में 30 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका कोई प्रत्याशी जीत नहीं पाया था।

पीएमके एक जाति आधारित पार्टी है और इसका गठन 1989 में हुआ था। 2011 के विधानसभा चुनाव में इसे 3 सीटें मिली थीं। अंबुमणि रामदास को पार्टी ने जीत की स्थिति में अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर रखा है।

कांग्रेस इस बार भी डीएमके के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ रही है। पिछली बार भी यह डीएमके के साथ मिलकर ही चुनाव लड़ी थी और इसे मात्र 3 सीटें मिली थीं। इसके पास स्थानीय स्तर पर कोई उल्लेखलीय नेता नहीं है और इसके वोटों का शेयर लगातार गिरता जा रहा है।

भारतीय जनता पार्टी के पास लोकसभा की एक सीट है। इसके पास भी प्रदेश स्तर का कोई नेता नहीं है। वी गोपालास्वामी की पार्टी एमडीएमके है। इस बार उसका भी किसी प्रमुख पार्टी के साथ गठबंधन नहीं हो रहा है, हालांकि तीन अन्य दलों को मिलाकर उन्होंने एक तीसरे मोर्चे का गठन करने का दावा कर रखा है। सीपीआई और सीपीएम उन्हीं के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। (संवाद)