पिछले दिनों देश की राजधानी दिल्ली में यमुना नदी के तट पर ’जीने की कला’ सिखाने का दावा करने वाले पांच सितारा आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने अपने आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन के 35 वर्ष पूरे होने के मौके पर विश्व सांस्कृतिक समारोह नाम से विशाल जमावडे़ का आयोजन किया। आयोजन को लेकर पर्यावरणीय सवाल उठे। सवाल इतने जायज और बुनियादी थे कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने मामले का स्वतंत्र संज्ञान लेते आयोजन पर सख्त ऐतराज जताया और अपने अंतरिम फैसले में आयोजक संस्था पर पांच करोड रुपए का आरंभिक जुर्माना लगा कर ही आयोजन को हरी झंडी दी। एनजीटी ने इसके साथ ही कहा कि बाकी मुआवजा आयोजक संस्था से बाद में पर्यावरणीय क्षति का आकलन करके वसूला जाएगा।
एनजीटी के इस फैसले का संदेश साफ था कि कोई भी व्यक्ति या संस्था देश के कानून से ऊपर नहीं है। लेकिन इस विवादास्पद आयोजन से जाहिर हो गया कि हैसियत और रसूख के आगे नियम-कायदे किस तरह लाचार हो जाते हैं। यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में भी पहुंचा था। हाईकोर्ट ने पूरे मामले पर गौर करने के बाद इसे पर्यावरणीय तबाही कहा था। अलबत्ता एनजीटी में चल रही सुनवाई के कारण हाईकोर्ट ने अपनी ओर से कोई आदेश पारित करने से मना कर दिया था। इस आयोजन को लेकर केंद्र सरकार की अतिशय दिलचस्पी और उदारता का अंदाजा दो तथ्यों से लगाया जा सकता है। एक यह कि सेना को वहां पंटून पुल बनाने में झोंक दिया गया। दूसरे, संस्कृति मंत्रालय ने आयोजन के लिए सवा दो करोड़ रुपए के अनुदान की घोषणा कर दी। तिस पर सत्ता की शह पाए आध्यात्मिक गुरू की हेकडी देखिए- उन्होंने कहा कि वे जेल चले जाएंगे पर जुर्माना नहीं भरेंगे। उनकी यह हेकडी और बदगुमानी न्यायपालिका की सरासर अवमानना थी। कोई सामान्य व्यक्ति अगर ऐसा करता तो निश्चित ही उसकी जगह जेल में होती लेकिन यहां तो मामला महाराजाधिराज’के राजपुरोहित’का था, इसलिए एनजीटी को भी अपमान का घूंट पीकर रह जाना पडा।
रविशंकर की ओर से पहले बताया गया था कि उनके इस महोत्सव का उद्घाटन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी करेंगे। लेकिन राष्ट्रपति ने आयोजन के चंद रोज पहले ही इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया। उन्होंने ऐसा शायद आयोजन पर न्यायपालिका और पर्यावरणविदों की ओर से उठे सवालों और सोशल मीडिया में हो रही थू-थू के मद्देनजर किया और ऐसा लगा कि शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस आयोजन की शोभा’ नहीं बढाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। प्रधानमंत्री ने न सिर्फ आयोजन में शिरकत की बल्कि अपने राजगुरू श्रीश्री रविशंकर का भी अपने भाषण में जमकर महिमागान किया। आर्ट ऑफ लिविंग बनाम आर्ट ऑफ चीटिंग के इस धतकरम को जब देश का प्रधानमंत्री ही सगर्व वैधता प्रदान करने को तत्पर हो तो बाकी मंत्री कैसे पीछे रह सकते थे! सो गृह मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री अरुण जेटली समेत अन्य कई वजीर, प्यादे और मुसाहिब भी राज्यप्रणीत इस आयोजन की श्रीवृध्दि करने पहुंचे। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने ऐसा करके साफ तौर पर जता दिया कि अपनों को उपकृत करने में वे किसी भी हद तक जा सकते हैं।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के साथ नत्थी बाबा रामदेव और रविशंकर नाम के ये दो शख्स योग, अध्यात्म और संस्कृति के नाम पर अपनी श्रीवृध्दि के जो भी उपक्रम कर रहे हैं, उसे धंधेबाजी ही कहा जा सकता है। एक ने स्वदेशी के नाम पर अपनी आटा-दाल, घी-तेल, साबुन और सौंदर्य प्रसाधन की बहुराष्ट्रीय कंपनी खडी कर ली तो दूसरे ने ओशो यानी रजनीश की तर्ज पर अपने को विश्व स्तरीय आध्यात्मिक गुरू के रूप में स्थापित करने के लिए यमुना के तट पर सरकारी संसाधनों के जरिए तथाकथित सांस्कृतिकता का वैश्विक कुंभ रच डाला। अलबत्ता विद्वता के मामले में वह रजनीश के पासंग भी नहीं है। रामदेव और रविशंकर की तरह ही एक समय वह आसाराम भी भाजपा बल्कि यूं कहें कि संघ परिवार का ऐसा ही चहेता था, जो पिछले करीब तीन वर्षों से जेल की हवा खा रहा है।
सरकारी संसाधनों की मदद से यमुना के तट पर रविशंकर के इस आयोजन में तीन दिन तक जो कुछ भी हुआ उसे कोई न्यूनतम विवेक रखने वाला व्यक्ति भी सांस्कृतिक उत्सव नहीं मान सकता। दरअसल, वह सांस्कृतिकता के नाम पर धनबल, सत्ताबल और मठबल का अश्लील प्रदर्शन था। प्रसिध्दि की लिप्सा में पगा बालीवुड छाप वैभव-ग्लैमर का एक ऐसा शो, जिसका मकसद भारत का महिमा गान या भारतीय संस्कृति का प्रचार करना नहीं बल्कि रविशंकर को बतौर सांस्कृतिकता का रॉकस्टार पेश करना था।
बहरहाल, रविशंकर हो या रामदेव या दूसरे तमाम धार्मिक गिरोहों के सरगनाओं से धर्म, संप्रदाय और जाति आधारित राजनीति करने वाले भ्रष्ट और निकृष्ट राजनेताओं और समाजसेवी का लबादा ओढे दलालों-मुनाफाखोरों-जमाखोरों की जगजाहिर साठगांठ कई गंभीर सवाल खडे करती है। ये ऐसे सवाल हैं जिनसे बचा नहीं जा सकता, क्योंकि 15 अगस्त, 1947 को जिस भारतीय राष्ट्र राज्य का उदय हुआ, उसका अस्तित्व धर्मनिरपेक्षता की शर्त से बंधा हुआ है। धर्मनिरपेक्षता ही वह एकमात्र संगठक तत्व है, जिसने भारतीय राष्ट्र को एक संघ राज्य के रूप में बनाए रखा है। धर्म से अलगाव के बजाय राज्यसत्ता के साथ उसके रिश्तों को मजबूत बनाने में कुछेक दलों को छोडकर कमोबेश सभी राजनीतिक दल बढ-चढकर भूमिका निभाते हैं। इन दलों ने धर्मनिरपेक्षता के सिध्दांत को विकृत कर उसे सभी धर्मों के पाखंडों के प्रति समभाव का अवसरवादी सिध्दांत बना दिया है।
दरअसल, भारत का शासक वर्ग बेरोजगारी, भुखमरी और दमन से पीडित शोषित वर्ग को बरगलाने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर रहा है। एक सोची-समझी साजिश है कि लोग भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर गोलबंद न हों, इसके लिए धार्मिक आयोजनों के मंच सजाए जाए और लोगों को परलोक और परमात्मा का भय दिखाकर अंधविश्वास और अज्ञान के अंधेरे में घेरा जाए। धर्म के नाम पर आपराधिक तत्व धर्माचार्यों का लबादा ओढ कर लोगों की आस्थाओं से खिलवाड करते हुए किस तरह अकूत दौलत का साम्राज्य खडा कर लेते हैं और अपने आश्रमों में किस तरह आपराधिक गतिविधियां संचालित करते और भोली-भाली लडकियों का यौन शोषण करते हैं, इसकी भी मिसालें हम हाल के दिनों में देख चुके हैं। ऐसे ही पाखंडियों में से कुछ तो इस समय जेल की हवा खाते हुए गंभीर आपराधिक मुकदमों का सामना भी कर रहे हैं। अतः आज सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि धर्म और धार्मिकता को ढोंगी-पाखंडी, धूर्त-मक्कार और लुच्चे-लफंगे धार्मिक नेताओं तथा दलालों, मुनाफाखोरों, कालेबाजारियों और घोटालेबाजों के चंगुल से मुक्त कराकर उसे सही मायनों में मानवीय और सार्थक तथा सामाजिक अर्थों में चैकन्ना और जवाबदेह बनाया जाए। (संवाद)
धनबल, सत्ताबल और मठबल का अश्लील प्रदर्शन
शासक वर्ग धर्म का इस्तेमाल कर रहा है
अनिल जैन - 2016-03-26 10:07
अपने देश में धर्म-अध्यात्म का चोला ओढ़े बाबाओं के पीछे पगलाए लोगों की कमी नहीं है। ऐसे लोगों में अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे गरीब ही नहीं बल्कि उनसे भी ज्यादा अच्छे-खासे शिक्षित और खाए-अघाए लोग भी होते हैं। इन बाबाओं को राजनेताओं और सत्ता प्रतिष्ठान का प्रश्रय मिलना भी कतई चैंकाता नहीं है। लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि किसी आध्यात्मिक गुरू के एक विवादास्पद आयोजन में भारत सरकार ने सारे नियम-कायदे ताक पर रखकर अपने पूरे तंत्र को ही नहीं बल्कि देश की सेना तक को झोंक दिया गया।