दलित पृष्ठभूमि के इंजीनियरिंग के छात्र बाईस वर्षीय शंकर और तमिलनाडु की अति पिछड़ी जाति में दर्ज थेवर जाति की कौशल्या ने प्रेम विवाह किया था। युवक के परिवार वालों ने तो इस शादी को स्वीकार कर लिया था, लेकिन लड़की के परिवार वालों को यह रिश्ता मंजूर नहीं था। कौशल्या की शिकायत के मुताबिक उसे अपने घर वालों से लगातार धमकियां मिल रही थीं और इसी के मद्देनजर उसने पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई थी। लेकिन पुलिस ने वक्त पर ध्यान नहीं दिया और नतीजतन तीन लोगों ने भरे बाजार में धारदार हथियारों से शंकर और कौशल्या पर हमला कर दिया। शंकर ने मौके पर ही दम तोड़ दिया और कौशल्या गंभीर रूप से घायल हो गई। इस घटना के बाद दबाव बढ़ने पर पुलिस ने कौशल्या के परिवार के चार लोगों को गिरफ्तार किया।

तमिलनाडु में इस तरह की यह पहली या अकेली घटना नहीं है। तमिलनाडु के दक्षिणी इलाकों मे हर साल ऐसी हत्या के शिकार होने वाले दलितों की संख्या सैकड़ों में हो सकती है। आम तौर पर हत्या का आरोप वहां की ताकतवर पिछड़ी जातियों पर लगता है। राजनीति और प्रशासन में उनके वर्चस्व की वजह से यह सिलसिला जारी है। यह समाज में जाति-व्यवस्था और उसकी जड़ताओं में घुली प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा के मनोविज्ञान का नतीजा है, जिसमें हर जाति के दायरे में सिमटे लोग अपने से निचली’ कही जाने वाली जाति के लोगों को अपने से कमतर समझते हैं और उनसे घृणा करते हैं। इससे समझा जा सकता है कि आजादी के लगभग सात दशक होने वाले हैं, फिर भी भारत में क्रूर जाति-व्यवस्था कितनी मजबूत है और दलितों के लिए जीवन कितनी दुश्वारियों से भरा है।

तमिलनाडु की यह घटना इसलिए भी एक बी विडंबना है कि वहां सामाजिक सुधार और बदलाव के आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है और एक समय इसके सकारात्मक सामाजिक नतीजे भी देखे गए थे। कमजोर दलित-पिछड़ी जातियों की सामाजिक स्थिति में काफी सुधार भी हुआ था। खासकर पचास के दशक में कुमारास्वामी कामराज के मुख्यमंत्री रहते हुए दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्थान और उनके बच्चों को शिक्षा देने की बहुत परिवर्तनकारी कोशिश तमिलनाडु में हुई थी। कामराज को स्कूलों मे मिड-डे मील कार्यक्रम का प्रवर्तक भी माना जाता है। कामराज ने जाति-भेद खत्म करने के लिए सभी स्कूली बच्चों को एक जैसा यूनिफॉर्म मुफ्त देने की योजना भी लागू की थी। इन सभी वजहों से तमिलनाडु का तेजी से सामाजिक विकास हुआ और जाति आधारित भेदभाव में भी कमी आई। फिर पिछले तीन-चार दशकों की राजनीति के दौरान ऐसा क्या हुआ कि कभी जातिगत वर्चस्व के विरुद्ध मिल कर संघर्ष करने वाले समाज में ताकतवर पिछड़ी जातियों ने अब कमजोर दलित जातियों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है। करीब दो साल पहले तमिलनाडु में ही दिव्या और दलित युवक इलावरसन के प्रेम संबंधों के चलते हिंसा हुई थी और आखिरकर इलावरसन के दुखद अंत ने समूचे देश में लोगों का ध्यान खींचा था। हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और देश के दूसरे इलाकों में भी कथित सम्मान के नाम पर बर्बर तरीके से हत्या की घटनाएं सामने आती रहती हैं।

दरअसल तमिलनाडु में जातिवाद की भूमिका सत्तर के दशक मे बढ़नी शुरू हुई, जब राजनेताओं ने जातियों का वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। इस बीच कई जाति आधारित संगठन और राजनीतिक पार्टियां बनीं, कई पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियां सबसे ज्यादा ताकतवर हो गईं और उन्होंने आत्मसम्मान की चाह रखने वाले दलितों पर जुल्म-ज्यादती शुरू कर दी। यह जातिगत कटुता अब अपने चरम पर है, लेकिन तमाम राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की वजह से इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाते। तमिलनाडु के कुछ दक्षिणी जिलों में स्थिति यह है कि स्कूलों में बच्चे अपनी कलाई में अलग-अलग रंग के धागे या पट्टियां बांधकर आते हैं, जिनसे उनकी जाति पहचानी जाए। यहां तक कि उनकी बनियान और माथे पर तिलक या बिदी का रंग भी जाति के अनुसार होता है। इस वजह से स्कूलों में ही बच्चे जाति आधारित कथित दुश्मन और दोस्त की पहचान करना सीख जाते हैं। यह स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि पिछले दिनों आई एक खबर के मुताबिक, एक जिले के कलेक्टर ने स्कूलों में कलाई पर किसी भी रंग के धागे या पट्टियां बांधने पर पाबंदी लगा दी। लेकिन ऐसे आदेशो पर अमल करवाना तकरीबन नामुमकिन होता है।

तमिलनाडु की हालत बताती है कि जब किसी सामाजिक सुधार के आंदोलन से उसका आदर्श निकल जाता है और वह सिर्फ हवा की राजनीति का हिस्सा बन जाता है, तो उसका क्या हश्र होता है। एक शताब्दी पहले पिछड़ी जातियां और दलित, सवर्णों के वर्चस्व के खिलाफ एकजुट थे, लेकिन अब दलित उन्हीं पिछड़ी जातियों की हिंसा और अत्याचार के शिकार हो रहे हैं। कमोबेश इससे मिलती-जुलती स्थिति पूरे देश में देखी जा सकती है, जिसकी वजह से समाज के सबसे निचले पायदान पर मौजूद समूह अब भी उस बराबरी या सामाजिक न्याय से वंचित है, जिसका वादा हमारे संविधान में किया गया है।

सवाल है कि जब इस हकीकत को शिद्दत से महसूस किया जा रहा है कि जाति-व्यवस्था सामाजिक विकास की सबसे बड़ी बाधक-तत्व रही है, इसे लेकर व्यापक आंदोलनो का एक इतिहास रहा है, तब भी जाति को लेकर जड़ता इस कदर हिसक क्यों बनी हुई है कि अंतरजातीय प्रेम संबंधों और विवाह करने वाले जोड़ों को सरेआम मार डाला जाता है? जाति की पहचान पर गर्व करते लोगों के सोचने-समझने का दायरा इतना संकुचित कैसे बना हुआ है कि जिस तरह के संबंध सामाजिक विकास में एक अहम और सकारात्मक भूमिका निभा सकते हैं, उन्हें वे अपने सम्मान के खिलाफ मानते है? यह सवाल सिर्फ समाज के लिए ही नहीं, बल्कि हमारी तमाम सरकारों के लिए भी है कि समाज की चेतना के विकास में नीतिगत स्तर पर उनकी भूमिका क्या रही है और आगे क्या रहने वाली है! (संवाद)