सवाल उठता है कि इस तरह की समस्या छोटे राज्यों मंे ही क्यों पैदा होती है? छोटे छोटे राज्यो के गठन के पक्ष मे दलील देते हुए कहा जाता है कि इससे उन राज्यो को विकास तेज होगा। उसी दलील को मानते हुए 2000 में उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ था। पहले वह उत्तर प्रदेश का हिस्सा हुआ करता था। लेकिन वहां विकास कितना हुआ, यह तथ्य तो अपनी जगह है, लेकिन उसके कारण इस तरह की अस्थिरता हम आज देख रहे हैं। यह सच है कि हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा और पंजाब में तो छोटे छोटे राज्यों के कारण वहां का विकास तेज हुआ है, लेकिन झारखंड, उत्तराखंड और उत्तर पूर्व के छोटे छोटे राज्यों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। झारखंड में तो एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा तक प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे। इससे पता चलता है कि छोटे छोटे राज्य हमेशा अच्छे नहीं होते। उत्तराखंड झारखंड जैसी अस्थिरता से अबतक मुक्त था, लेकिन पिछले दिनों वह भी उसी तरह का प्रदेश बन गया है।
उत्तराखं डमें बजट पारित होने पर ही सवाल खड़ा हो गया। उसे सरकार ने पेश किया और जब उसे पारित किया जा रहा था, तो उस पर वोटिंग की मांग की गई। विपक्ष का कहना है कि वोटिंग की मांग को नजरअंदाज कर स्पीकर ने उसे ध्वनिमत से पास करार दिया, लेकिन विपक्ष के अनुसार बजट विधेयक पराजित हो चुका था। उसके बाद वह सब समस्या शुरू हुई, जिसे हम आज देख रहे हैं।
उत्तराखंड के सबक यही हैं कि छोटे राज्य सभी समस्याओं के समाधान नहीं हैं। यदि छोटे राज्यों में राजनैतिक अस्थिरता आती है, तो विकास उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए छोटे राज्यों की उपयोगिता के तर्क देने वालों को इससे कुछ सबक लेना चाहिए।
दलबदल की समस्या इसके खिलाफ बने कडे़ कानून के बावजूद बनी हुई है और इससे सिर्फ क्षेत्रीय दल ही नहीं, बल्कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसे राष्ट्रीय दल भी प्रभावित होते हैं।
उत्तराखंड मंे जिस आनन फानन में राष्ट्रपति शासन लगाया गया, उससे संविधान की धारा 356 के दुरुपयोग का मामला एक बार फिर सामने आ गया है। उत्तराखंड से पहले अरुणाचल प्रदेश में भी राष्ट्रपति शासन लगाया गया और उसमें भी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच ही राजनैतिक रस्साकशी देखी गई। जाहिर है केन्द्र द्वारा राज्यों में हस्तक्षेप करने का आरोप एक बार फिर लगाया जा रहा है।
उत्तराखंड का असर संसद के बजट सत्र पर भी पड़ सकता है। कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियां जीएसटी को पारित कराने के लिए तैयार दिख रही थी। उत्तराखंड के कारण संसद एक बार फिर संघर्ष का अखाड़ा बन सकती है और इसका शिकार जीएसटी विधेयक बन सकता है।
उत्तरांचल और उत्तराखंड की घटनाएं कांग्रेस के नेतृत्व पर भी एक विपरीत टिप्पणी है। दोनों राज्यों में कांग्रेस की सरकारों के लिए समस्या बदतर होती रही और पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व दिल्ली में चैन की वंशी बजाता रहा। कांग्रेस के पास कुछ ही राज्य रह गए हैं, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के पास उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए भी समय नहीं हैं। (संवाद)
उत्तराखंड का राजनैतिक संकट
कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर एक विपरीत टिप्पणी
कल्याणी शंकर - 2016-04-01 10:51
उत्तराखंड में चल रही ’आया राम, गया राम’ की राजनीति से यही पता चलता है कि हमारी राजनैतिक व्यवस्था में सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। हमारे देश में कड़ा दलबदल विरोधी कानून है, इसके बावजूद छोटे राज्यों के विधायक इसे अंगूठा दिखाने मे सफल हो जाते हैं। उत्तराखंड में तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई है और अनेक पेचिदगियां वहां पैदा हो गई हैं। पेश किए गए बजट को पारित होने या न होने को लेकर विवाद पैदा हो गया है। राष्ट्रपति शासन भी वहां लागू हो गया है और उस आदेश को लेकर मामला कोर्ट में भी जा पहुंचा है। कोर्ट राष्ट्रपति शासन के उस आदेश पर ही सवाल खड़ा कर रहा है। इस तरह का यह कोई पहला मामला नहीं है। छह महीने पहले उत्तराखंड में भी कुछ वैसा ही हो रहा था। वहां भी उत्तराखंड की तरह कांग्रेस विधायकों ने विद्रोह कर दिया था और अंत में वहां भी राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा था।