सरकार का तर्क है कि यदि देश में और चार बेंच बना दिए जाएं तो केसों में और ज्यादा देरी होगी क्योंकि हाईकोर्ट से मामला बेंच में जाएगा और वहां सालों की सुनवाई के बाद फिर मुख्यालय दिल्ली आएगा इससे वादी को फायदा की जगह नुकसान ही होगा और न्याय में अनावश्यक देरी होगी जो न्याय उपलब्ध कराने के सरकार का उद्देश्य प्रभावित होगा। सरकार का कहना है कि बेंच का मामला पेचीदा है संविधान में स्पष्ट लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट का ऑफिस नई दिल्ली में ही होगा और इसे दूसरी जगह तब ही ले जाया जा सकता है जब सीजेआई राष्ट्रपति से अनुमति लें।
इस तरह देखा जाए तो सरकार का रूख बहुत सारे तर्कों के साथ तार्किक और सुसंगत है, क्योंकि जरूरी है कि वकीलों के केस लटकाने के मामले का निदान ढूंढा जाए सरकार इस दिशा कुछ कर तो सकती नहीं इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को ही एक्शन लेना होगा। केस की सुनवाई में तारीख पर तारीखें क्यों बढ़ाई जाती हैं, प्रतिवादी को बचाने के लिए, ताकि कोई निर्दोष भी सजा न पा जाए ? तब तक वादी की तीन पीढ़ियां खप जाती हैं और जब फैसला आता है तो वादी का पोता कहता है कि क्या फायदा ऐसे लोकतंत्र में रहने का, जहां बाबा न्याय मांगे और पोता के हाथ में कथित न्याय का मेडल मिले? निश्चित रूप से यह सब वकीलों के नेक्सस का ही परिणाम है जो किसी भी केस को अनावश्यक रूप से सालों तक खींचते चले जाते हैं और न्यायमूर्ति उसके अधिकारों के बरक्स नई तारीख की इबारत लिखते चले जाते हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को एक निश्चित दिन निर्धारित कर देना चाहिए कि इतने दिनों के भीतर सारे सबूत, गवाह और जवाब आ जाने चाहिए। सुनवाई की तीन तारीखें किसी भी फैसले में न्याय प्रदान करने के लिए काफी हैं। सुप्रीम कोर्ट चाहे तो पहली सुनवाई के बाद प्रतिवादी के वकील को एक माह मांगने पर तीन माह का समय दे दें और अगली सुनवाई मामले की अंतिम सुनवाई हो। उस दिन किसी भी वकील की कोई भी दलील नहीं सुनी जाए और तीन माह का समय इसलिए दिया जाए कि एक की जगह तीन माह लेकर वे सारे रिकार्ड तैयार कर लें। वादी को तो हर तरफ रोना है न्याय के लिए सरकारी तंत्र से ठगा गया, लूटा गया और अब न्याय के मंदिर में वकीलों के हाथों। ऐसे में लोकतंत्र में रहने का औचित्य समाप्त हो जाता है जब जिला न्यायालय से सुप्रीम कोर्ट आते आते वादी की तीन पीढ़ियां खप जाती हैं और जब न्याय मिल भी जाए तो वह किस काम का?
इस परंपरा को अब खत्म करने का समय आ गया है, जब कोर्ट ही सरकार को यह आदेश देती है कि वादी को देरी से मुआवजा दिया गया तो इस मामले में स्वयं भी एक्शन ले और केसों की सुनवाई के लिए अधिकतम तीन माह का समय सुनिश्चित कर दे। हाईकोर्ट में छह माह, जिला न्यायालय में एक साल और सुप्रीम कोर्ट में अधिकतम तीन माह। इससे वकीलों की दादागिरी खत्म हो जाएगी और न्याय के लिए दर दर की ठोकरें खा रहे वादियों के दिमाग में एक बात तो समझ में आ जाएगी कि अब वे लोकतंत्र के मंदिर से बिना न्याय के वापस नहीं जा सकेंगे। जब फैसले का दिन निश्चित हो जाएगा तो प्रतिवादियों के दिमाग में एक बात का डर तो हो जाएगा कि यदि वे दोषी हैं तो पंचायती कर लें, समझौता कर लें, इससे अपने आप केसों की संख्या घटने लगेगी और लोकतंत्र का महत्व बढ़ेगा। आज हम कार्यपालिका को इसलिए तो कोसते हैं या उसकी विश्वसनीयता पर भरोसा नहीं करते कि वह बिकाऊ है, उससे मिलीभगत करके दोषी-प्रतिवादी पैसे-दौलत के बल पर किसी भी कानून को तोड़ मरोड़ करने में सफल हो जाते हैं। यदि कार्यपालिक ईमानदार हो जाए तो आधा से ज्यादा केस कोर्ट में आए ही नहीं। पुलिस केस का हाल तो सभी जानते हैं पुलिस की बनाई कहानी से भी कोर्ट का समय जाया होता है, और सबसे बढ़कर सरकार एक्टिव हो जाए तो 50 फीसदी केस हाईकोर्ट और सुप्रीम में आने से बच जाएंगे क्योंकि ज्यादातर मामले सरकार के खिलाफ ही हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट का भार कम करने व सुलभ न्याय उपलब्ध कराने में सरकार अपनी जिम्मेदारी समझे। एक आम आदमी के लिए संभव ही नहीं है कि किसी दौलतमंद से जिला से लेकर उच्चतम न्यायलय तक लड़ाई लड़ ले और इस लोकतंत्र में न्याय हासिल कर ले? लाख गलतियों के बावजूद दौलतमंद जिला से लेकर उच्चतम न्यायालय तक बेफिक्र और आरामदेह जिंदगी जीने को स्वतंत्र है जबकि एक मजदूर के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचना संभव नहीं है। क्यों?
सुप्रीम कोर्ट तीन बेंच मामला: सरकार ने ई-फाइलिंग से मामले जल्द निपटाने की दी सलाह
शशिकान्त सुशांत - 2016-04-17 04:22
भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में तीन नए बेंच, कोलकाता, चेन्नई, बनाए जाने को ेलेकर दायर याचिका पर जारी नोटिस का जवाब देते हुए जो ड्राफ्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंपी है उसमें स्पष्ट कहा है कि बेंच बनाने की कोई जरूरत नहीं है, सुप्रीम कोर्ट सूचना तकनीक का इस्तेमाल करे ई- फाइलिंग के तहत मामले का निपटारा जल्द से जल्द करें और केसों में अनावश्यक देरी को कम करने के लिए कदम उठाए, लंबित केसों को जल्दी निपटाने के बारे में सोचे और जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार को संविधान संशोधन का सुझाव देना बंद करे।