अंबेडकर का बौद्ध बन जाना ही संघ के लिए नागवार गुजरने वाली घटना नहीं थी। बौद्धों को भी हिन्दू मानकर संघ अंबेडकर को अपना सकता था, लेकिन हिन्दू धर्म के बारे में अंबेडकर के जो लिखित विचार हैं, वे किसी प्रतिबद्ध संघी के लिए स्वीकार करना आसान नहीं है। अपनी पुस्तक ’ जाति का विघ्वंस’ में अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को समाप्त करने के लिए हिन्दुओं की धार्मिक अवधारणाओं का नाश करने की वकालत कर दी है। अंबेडकर को जाति तोड़क मंडल के मंच से भाषण करना था। वह भाषण मात्र इसीलिए नहीं हो पाया, क्योंकि अंबेडकर अपने भाषण में हिन्दू धर्म की बखिया उधेड़ने वाले थे।

भाषण नहीं हुआ, पर उस भाषण को अंबेडकर ने एक किताब की शक्ल में प्रकाशन करा दिया। आज वह पुस्तक अंबेडकरवादियों के लिए वहीं महत्व रखता है, जो महत्व कम्युनिस्टों के लिए माक्र्स का कम्यनिस्ट मेनिफेस्टो रखता है। अंबेडकर सिर्फ उस पुस्तक को छपा कर ही संतुष्ट नहीं हुए, बल्कि उन्होंने ’हिन्दुत्व की गुत्थियां नाम की एक और पुस्तक लिख डाली, जिसमें राम और कृष्ण को भद्दी भद्दी गालियां दी गई थीं और हिन्दुओं के अनेक पौराणिक देवताओं के बारे में गंदी गंदी बातें लिखी गई थीं।

जब 1990 और उसके बाद के कुछ वर्षों में अयोध्या में रामजन्म मंदिर का आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था, तो उस समय मंदिर आंदोलन के विरोधी अंबेडकर की रचनाओं का हवाला देकर ही उसका विरोध कर रहे थे। कभी शंबूक बध की बात की जाती थी, तो कभी अंबेडकर द्वारा राम के खिलाफ लिखी गई बातों का उल्लेख होता था। सच कहा जाय, तो उस समय हिन्दुओं क अंदर के अंतर्विरोध को उभारने के लिए अंबेडकर का सहारा लिया जा रहा था।

यही कारण है कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1990-91 में भीम राव अंबेडकर की 100वीं जयंती मनाई थी, तो उसमें भारतीय जनता पार्टी और उसके नेताओं ने भागीदारी नहीं की थीं उस समय तो उसे अंबेडकर के नाम से ही डर लगता था या वह नाम सुनकर गुस्सा आता था।

यही कारण है कि जब नरेन्द्र मोदी अंबेडकर का गुणगान करने लगे, तो कुछ लोगों को लग रहा था कि वे अपने संघ परिवार से बगावत कर रहे हैं। लेकिन यह अनुमान गलत निकला। सच्चाई यही है कि पूरा संघ परिवार अंबेडकर का गुणगान कर रहा है। और इसके पीछे मकसद यही है कि दलितों को भारतीय जनता पार्टी के साथ जोड़ा जाय।

भारतीय जनता पार्टी या उसकी मातृसंस्था जो भी करे, उस पर विपरीत टिप्पणी करना गलत होगा। किसी को भी अपना आधार बढ़ाने की आजादी है और वैसा करने के लिए वह कानून सम्मत कदम उठाता है, तो वह किसी भी प्रकार से गलत नहीं है। इसलिए अंबेडकर को अपना दिखाने के लिए संघ की किसी भी प्रकार आलोचना करना गलत होगा। हो सकता है, इससे समाज को फायदा ही होगा, क्योंकि इस प्रयास में सवर्णों और दलितों के बीच की खाई कुछ पट सके।

पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या दलित भाजपा को अपना पाएंगे? अब तक तो दलित भाजपा के खिलाफ ही रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के कारण कुछ दलित जहां तहां भाजपा को वोट देते नजर आए, लेकिन अधिकांश दलित तो उस समय भी भाजपा के खिलाफ ही थे। ओबीसी के वोटों के कारण भाजपा की जीत संभव हो पाई।

दलितों में भारी अशिक्षा है। ज्यादातर लोग गरीबी और अशिक्षा के शिकार हैं, लेकिन एक वर्ग पढ़ा लिखा है और राजनैतिक रूप से बहुत सजग भी है। लेकिन उनकी राजनैतिक सजगता भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस के खिलाफ ही है। खासकर के दलितों के बीच जो अंबेडकर का झंडा उठाते हैं, उनके लिए तो संघ ही उनका सबसे बड़ा राजनैतिक दुश्मन है। इसका कारण है कि पिछले 25 साल की दलित चेतना भाजपा और आरएसएस के खिलाफ ही पैदा हुई है। 1990 में मंडल लागू करने की वीपी सरकार की घोषणा के बाद हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन का समर्थन भाजपा ने किया था और आरक्षण दलितों के लिए सशक्तिकरण ही नहीं, बल्कि प्रतिष्ठा का सवाल भी बन गया है। जिस 6 दिसबंर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस किया गया, वह अंबेडकर की पुण्यतिथि थी। उसके कारण भी दलित भाजपा से नाराज हैं। वीपी सिंह का मंडल आंदोलन हो या कांशीराम का बहुजन आंदोलन, दोनों का सुर भाजपा और आएसएस के खिलाफ रहा है।

आजादी के बाद दलित आमतौर पर कांग्रेस को ही वोट देते रहे हैं। दलित महात्मा गांधी को अपना मसीहा मानते थे और कांग्रेस को गांधी की पार्टी। कांग्रेस के अंदर जगजीवन राम नाम के उनके एक बड़े नेता भी थे। इसलिए आजादी के बाद लगभग सभी दलित कांग्रेस को ही वोट करते रहे। पर उत्तर प्रदेश और बिहार में अब दलित कांग्रेस के खेमे से बाहर आ गए हैं। पर देश के अधिकांश हिस्सों में अब भी दलित कांग्रेस के ही साथ हैं। हां, कांग्रेस के कमजोर होने के बाद वे दूसरी पार्टियों की ओर देखने लगे हैं। भाजपा की निगाह इसी तथ्य पर लगी हुई है। वह कांग्रेस मुक्त भारत बनाना चाह रही है और उसके लिए वह उसका दलित आधार छीनने पर आमादा है। इसके कारण ही वह अंबेडकर को अपना बना रही है।

पर सवाल यही है कि क्या दलित मात्र इसलिए भाजपा के साथ हो जाएंगे, क्योंकि संघ अंबेडकर का गुणगान कर रही है? दलितों मंे भी साक्षरता बढ़ रही है और वे खुद भी पढ़ सकते हैं कि अंबेडकर ने क्या क्या लिखा है। अंबेडकर काग्रेस के खिलाफ हो सकते हैं। वे कम्युनिस्टों के खिलाफ भी हो सकते हैं, लेकिन हिन्दू और हिन्दुवादी संगठनों के भी वे विरोधी रहे हैं। (संवाद)