उत्तराखंड में अभूतपूर्व राजनैतिक संकट आ खड़ा हुआ है। वहां हरीश रावत की एक चुनी हुई बहुमत वाली सरकार थी। विधायक दल मे असंतोष था। असंतुष्ट विधायकों के असंतोष का लाभ उठाकर भाजपा ने वहां अपनी या अपने समर्थन वाली असंतुष्ट कांग्रेसियों की सरकार बनाने की कोशिश की। विधानसभा में विनियोग विधेयक पर रावत सरकार को गिराने की कोशिश की गई। भाजपा दावा कर रही है कि विधानसभा में विनियोग विधेयक पर वोटिंग की मांग की गई थी, जिसे अनुसना की विधानसभाध्यक्ष ने ध्वनिमत से विधेयक के पारित होने की घोषणा कर दी है।

यदि विनियोग विधेयक पर मतविभाजन की मांग की जाती है, तो उसे ध्वनिमत से पारित नहीं कराया जा सकता। जाहिर है, उस मांग को खारिज करना विधानसभाध्यक्ष की मनमानी थी। लेकिन अध्यक्ष कह रहे हैं कि मतविभाजन की मांग उनके द्वारा विधेयक को पारित होने की घोषणा के बाद हुई थी। सच्चाई क्या है, यह तो वही बता सकते हैं, जो उस समय वहां मौजूद थे। लेकिन स्पीकर के फैसले का विरोध करते हुए भाजपा के विधायक कांग्रेस के 9 असंतुष्ट विधायकों को लेकर राज्यपाल के पास पहुंचे और हरीश रावत की सरकार के गिर जाने का दावा करने लगे।

राज्यपाल अपने स्तर पर उन घटनाओं की जानकारी लेकर यदि चाहते तो हरीश रावत सरकार को गिरा हुआ मान सकते थे और वैकल्पिक सरकार के गठन या राष्ट्रपति शासन का विकल्प तलाश सकते थे, लेकिन उन्होंने इन दोनों में से कुछ भी नहीं किया। उन्होंने हरीश रावत सरकार को अपना बहुमत विधानसभा के पटल पर साबित करने के लिए 10 दिनों का समय दे दिया। 28 मार्च को हरीश रावत अपनी सरकार का बहुमत साबित करने वाले थे और उसके एक दिन पहले ही केन्द्र सरकार ने हरीश रावत की सरकार को हटाकर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया और विधानसभा को निलंबित कर दिया।

यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की पहली घटना है कि राज्यपाल के आदेश पर अपनी सरकार का बहुमत साबित करने जा रही एक प्रदेश सरकार को केन्द्र सरकार ने एक दिन पहले ही हटा दिया। हटाने के लिए तर्क दिया गया कि वह सरकार 18 मार्च को ही गिर गई थी और उसके बाद वह अवैध हो गई थी। सवाल उठता है कि सरकार गिरी या नही गिरी, इसका फैसला स्पीकर करता है और स्पीकर का फैसला विवादास्पद हो तो गर्वनर भी इस पर फैसला कर सकते हैं। लेकिन गवर्नर ने तो उस सरकार को 18 मार्च को गिरा हुआ नहीं माना। तभी तो उसे 28 मार्च को अपना बहुमत साबित करने का आदेश दिया। एक गिरी हुई सरकार को बहुमत साबित करने के लिए राज्यपाल कह ही नहीं सकते।

इसमें सबसे खटकने वाली बात यह सामने आ रही है कि राज्यपाल ने विधानसभा निलंबित कर राष्ट्रपति शासल लागू करने की अनुशंसा ही नहीं की थी। इस अनुशंसा के न होने के बावजूद केन्द्र सरकार ने यदि वह निर्णय लिया, तो उसका एकमात्र कारण यही था कि हरीश रावत सरकार द्वारा 28 मार्च को अपना बहुमत साबित करने की पूरी संभावना थी, क्योंकि 9 असंतुष्ट विधायकों के दलबदल कानून के तहत सदस्यता समाप्त होने के बाद सरकार बहुमत में थी।

हाई कोर्ट ने सरकार को बहाल कर दिया और उसके अगले दिन सुप्रीम केार्ट ने हाई कोर्ट के उस आदेश पर अंतरिम रोक भी लगा दी। 9 असंतुष्ट कांग्रेसी विधायकों का मामला अभी भी कोर्ट के विचारधीन है और कांग्रेस समय मिलने पर अपना बहुमत साबित करने के लिए जिन छह गैर कांग्रेसी विधायकों पर निर्भर है, उनमें से दो बसपा, एक उत्तराखंड क्रान्ति दल और तीन निर्दलीय हैं। उनका साथ कांग्रेस पाती रहेगी, यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट यदि एक बार फिर विधानसभा का बहुमत हासिल करने के लिए हरीश रावत को कहे, तो वे बहुमत साबित कर ही देंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं। यानी न्यायिक आदेशों की अनिश्चितता के साथ साथ राजनैतिक अनिश्चितता भी बनी हुई है।

राजनैतिक अनिश्चय क्या मोड़ लेगा, यह कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तो सच है कि भाजपा ने इस पूरे प्रकरण में अपने हाथ जलाए हैं। विधानसभा के आमचुनाव क ेअब 10 महीने भी नहीं बचे हुए हैं। वैसी हालत में उसे अगले विधानसभा चुनाव में जीतकर सरकार बनाने की तैयारी करनी चाहिए थी। पिछले लोकसभा चुनाव में उसने उत्तराखंड की पांचों सीट पर जीत हासिल कर ली थी। कांग्रेस सरकार के खिलाफ जनअसंतोष का भी उसे फायदा मिला था। पिछले विधानसभा चुनाव में उसकी हार भी बहुत मामूली मतों से हुई थी। यानी आमचुनाव में भाजपा की जीत लगभग निश्चित थी।

लेकिन समय से पहले सत्ता का सुख भोगने की भाजपा की लालसा ने कांग्रेस के हाथ को मजबूत कर डाला। राजनैतिक अनिश्चय के इस दौर का लाभ उठाते हुए हरीश रावत लोगों के पास अपना दुखड़ा लेकर जा रहे हैं और लोगों की सहानुभूति भी उन्हें मिल रही है। भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ अदालतों द्वारा भी टिप्पणियां की जा रही हैं और वह लोगों को सही तरीके से समझा नहीं पा रही है कि उसने जो किया वह सही था। उसने कांग्रेस के अंदर हरीश रावत के विरोधियों को वहां से हटा दिया, जिसके कारण श्री रावत कांग्रेस के अंदर भी अब ज्यादा मजबूत हो गए हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस को विधानसभा चुनाव के लिए एक बहुत बड़ा मुद्दा मिल गया है, जिसके कारण भाजपा द्वारा हरीश रावत के खिलाफ उठाए गए मुद्दे दबकर रह जाएंगे। चुनाव के पहले हरीश रावत की सरकार बन भी सकती है और नहीं भी बन सकती है, लेकिन इतना तय है कि चुनाव के बाद कांग्रेस और हरीश रावत की सरकार बनने की संभावना बलवती हो गई है। और यह सब हुआ है भाजपा के नेतृत्व की अपरिपक्वता के कारण। (संवाद)