उत्तराखंड की इस घटना को राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार मिला। जाहिर है, भाजपा और उसके नेताओं की फजीहत पूरे देश में हुई। इसके कारण प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को भी झटका लगा है। श्री मोदी संविधान को अपना धर्मग्रंथ बताते रहे हैं, लेकिन इस संकट के दौरान यह बात उभर कर सामने आई कि मोदीजी की सरकार ने संविधान की मर्यादा के साथ छेड़छाड़ की। यदि किसी मुख्यमंत्री का बहुमत संदिग्ध हो जाय, तो सदन में ही उस संदेह को दूर या पुष्ट किया जा सकता है। बोम्मई मामले में 9 जजों के संवैधानिक पीठ का यही फैसला है। वह फैसला हमारी संवैधानिक व्यवस्था का हिस्सा है।
इसलिए जब राज्यपाल पाॅल ने 28 मार्च को हरीश रावत सरकार को अपना बहुमत साबित करने का जो निर्देश दिया था, वह पूरी तरह संवैधानिक मर्यादा के अधीन था, लेकिन केन्द्र सरकार ने राज्यपाल के उस निर्देश का धता बताते हुए 27 मार्च को ही हरीश रावत की सरकार बर्खास्त कर दी, वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया और विधानसभा को निलंबित कर दिया गया। इसमें सबसे आपत्तिजनक बात तो यह थी कि राज्यपाल ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश ही नहीं की थी।
राष्ट्रपति शासन लागू करने के साथ ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि को नुकसान हुआ। संविधान के प्रति बार बार कसमें खाने के उनके रस्मों के ऊपर सवाल उठे। वे कहा करते थे कि नेशन फस्र्ट, लेकिन उत्तराखंड प्रकरण से पता चला कि उनके पावर फस्र्ट है, नेशन नहीं। राष्ट्रपति शासन लागू करने के उस निर्णय से यह भी पता चल गया कि भारतीय जनता पार्टी के पास इतने विधायकों का समर्थन हासिल नहीं था कि वे हरीश रावत की सरकार को 28 मार्च को होने वाले शक्ति परीक्षण में परास्त कर दें।
कायदे से तो भाजपा को उसी समय हार मान लेनी चाहिए थी और अपना कदम पीछे खींच लेना चाहिए था, लेकिन उनके नेताओं को लगा कि यदि समय मिल जाय, तो वे कांग्रेस के कुछ और विधायकों को तोड़ सकते हैं और दल बदल कानून के अमल के बावजूद हरीश रावत की सरकार को गिरा सकते हैं। राष्ट्रपति शासन समय पाने के लिए ही लगाया गया था।
समय मिलने के बावजूद भाजपा कांग्रेसी विधायकों और रावत समर्थक गैर कांग्रेसी विधायकों को पर्याप्त संख्या में तोड़ नहीं पा रहे थे, इसलिए उन्होंने समय पाने के लिए अदालती प्रक्रिया का सहारा लिया। जितना विलंब हो सकता था, उतना उन्होंने न्यायिक प्रक्रिया को पूरा कराने में लगाया। उन्होंने अदालतों से तारीखों पर तारीखंे मांगे और उत्तराखंड संकट को 11 मई तक पहुंचा दिया। वैसे सच यह भी है कि यदि इस मामले को अदालत में नहीं लाया जाता, तब भी 13 मई को हरीश रावत की सरकार की वापसी हो जाती, क्योंकि राष्ट्रपति शासन लागू करने के अध्यादेश को संसद के सत्र के समाप्त होने के पहले संसद से पारित करवाना जरूरी होता है और राज्यसभा में वह अध्यादेश पेश करने पर पराजित हो जाता और यदि सरकार उसे पेश नहीं करती, तो सत्रावसान के साथ साथ ही अध्यादेश अपनी मौत मर जाता। इस तरह विधानसभा फिर से बहाल हो जाती, राष्ट्रपति शासन समाप्त हो जाता और हरीश रावत की सरकार अस्तित्व में अपने आप आ जाती।
बहरहाल, केन्द्र सरकार ने अदालत की आड़ में संसद में अपनी होने वाली फजीहत से अपने को बचा लिया, लेकिन अदालतों में उसकी फजीहत कोई कम नहीं हुई। अदालती कार्रवाई के एक एक दिन केन्द्र सरकार पर भारी पड़ रहे थे और उसकी राष्ट्रव्यापी थू थू हो रही थी।
शक्ति परीक्षण में सफल होने के लिए भाजपा के रणनीतिकार एक से एक कोशिश करते रहे और वैसा करते समय राजनीति की जमीनी हकीकत को भूलते रहे। वे बसपा के दो विधायकों को अपने पाले में लाने की कोशिश करते रहे, लेकिन जब उन विधायकों ने कह दिया कि पार्टी अध्यक्ष मायावती के आदेश पर वे काम करेंगे, तो उन्हें स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि वे कांग्रेस को ही वोट डालेंगे, क्योंकि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की जीत के लिए मायावती मुस्लिम मतदाताओं पर निर्भर है और भाजपा का साथ देकर मायावती उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकती थी। गैर बसपा विधायकों के सामन अब सरकार नहीं, बल्कि विधानसभा में चुनाव जीतना महत्वपूर्ण है और उन्हें साफ लग रहा था कि हरीश रावत के साथ रहकर ही वे दुबारा विधानसभा में आसानी से आ सकते हैं, क्योंकि सरकार के पतन के बाद हरीश रावत के प्रति प्रदेश भर के मतदाताओं में सहानुभूति की एक लहर है।
भारतीय जनता पार्टी ने अपनी जो फजीहत कराई है, उसका खामियाजा उसे उत्तराखंड के चुनाव में ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में भी भुगतना पड़ सकता है, क्योंकि दोनों एक ही प्रदेश का कभी हिस्सा रहे हैं। यदि भाजपा जोड़तोड़ से सत्ता हासिल करने का यह खेल नहीं खेलती तो क्या पता आगामी विधानसभा चुनाव में जीतकर वह अपनी सरकार बना लेती, लेकिन उसके नेताओं को 10 महीने और इंतजार करने का घैयै ही नहीं था।
सवाल उठता है कि क्या नरेन्द्र मोदी उत्तराखंड में हुई अपनी फजीहत से कोई सीख लेंगे? सबसे बड़ी सीख तो उनकी यही हो सकती है कि उनकी टीम में गलत लोग भरे पड़े हैं, जो राजनीति की जमीनी हकीकत को नहीं समझते और इसके कारण ही कभी पार्टी की दिल्ली हाथ टूटते हैं, तो बिहार में पैर टूटते हैं और उत्तराखंड में नाक कटती है। (संवाद)
उत्तराखंड में भाजपा की कटी नाक
क्या उससे सबक ले पाएंगे मोदी?
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-05-11 09:53
शक्ति परीक्षण में हरीश रावत और कांग्रेस को पराजित करने के लिए भाजपा ने वह सब कुछ किया, जो वह कर सकती थी और वैसा करने में एक के बाद एक गलती करती चली गई। इसके कारण उसे चैतरफा हमलों का सामना करना पड़ा और सबसे ज्यादा फजीहत तो उसकी अदालत में हो रही थी, जहां उससे एक के बाद एक असुविधाजनक सवाल पूछे जा रहे थे और उन सवालों का कोई जवाब उसके पास नहीं था।