हिन्दी के तमाम क्षेत्रीय और तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों तथा टेलीविजन की खबरिया चैनलों ने अपने पाठकों और दर्शकों तक चुनाव नतीजों से संबंधित खबरें पहुंचाने में तटस्थता दिखाने और अंतिम निष्कर्ष प्रस्तुत करने से बचने जैसी बुनियादी बातों की सिरे से उपेक्षा की। भाजपा एक राज्य में अपने सत्तारोहण और दो राज्यों में कांग्रेस की सत्ता से बेदखली की चाहे जिस तरह से व्याख्या करे, एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर यह उसका अधिकार है। लेकिन इस राजनीतिक उलटफेर पर हिन्दी मीडिया द्वारा प्रस्तुत खबरों, विश्लेषणों और संपादकीय टिप्पणियों का भी प्रतिनिधि स्वर यही रहा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई में भारतीय जनता पार्टी देश को कांग्रेस-मुक्त करने का लक्ष्य हासिल करने की दिशा में तेजी से आगे बढ रही है। कुछ अखबारों और चैनलों ने तो सीधे तौर पर ऐलान कर दिया कि भाजपा ही अब देश में एकमात्र अखिल भारतीय पार्टी है और कांग्रेस अब समाप्त हो गई है-उसके पुनर्जीवन के कोई आसार नहीं हैं।

चापलूसी और मूर्खता की चाशनी में डूबे इस निष्कर्ष के बरअक्स अगर हम पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से संबंधित आंकडों को देखें तो पाएंगे कि हकीकत कुछ और ही है। इन आंकडों को हम तीन पैमानों पर देख सकते हैं। पहला- इन पांच राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनी हैं। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक, केरल में वाम मोर्चा, असम में राजग (भाजपा) और पुडुचेरी में कांग्रेस ने सरकार बनाई है। यानी विधानसभा सीटों के लिहाज से इन पांच में से दो सबसे बडे राज्यों पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में उन क्षेत्रीय पार्टियों को जीत हासिल हुई हैं, जिनके खिलाफ भाजपा जोर-शोर से चुनाव मैदान में उतरी थी लेकिन उसे शर्मनाक नतीजों का सामना करना पडा। तमिलनाडु में तो वह अपना खाता भी नहीं खोल सकी जबकि पश्चिम बंगाल में उसे महज तीन सीटों से ही संतोष करना पडा। इन चुनावों में उसे मिले वोटों की संख्या में भी 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले भारी गिरावट आई। जबकि भाजपा के सुर में सुर मिलाते हुए हिन्दी मीडिया जिस कांग्रेस की मौत का तराना गुनगुना रहा है, उसने इन दोनों राज्यों में लोकसभा चुनाव की अपेक्षा अपने प्रदर्शन में काफी सुधार किया है। सीटों के लिहाज तीसरे बडे प्रदेश केरल में जरूर कांग्रेस को झटका लगा है। वहां पर वह सत्ता से बेदखल हुई है, लेकिन उसकी जगह सत्ता की बागडोर वाम मोर्चा के हाथों में आई है। भाजपा को वहां भी लोकसभा चुनाव की तुलना में तीन सीटों का नुकसान हुआ है। वहां लोकसभा चुनाव में वह चार विधानसभा क्षेत्रों में अन्य दलों से आगे रही थी लेकिन इस बार उसे महज एक ही सीट मिल पाई है। अलबत्ता लोकसभा चुनाव के मुकाबले उसे प्राप्त वोटों में जरुर मामूली (0.5 फीसदी) इजाफा हुआ है, जिसे खुद भाजपा भी और उसका भोंपू बना मीडिया भी बडी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रहा है। पूर्वोत्तर के प्रवेश द्वार और उसके सबसे बडे प्रदेश असम में जरूर भाजपा ने बडी कामयाबी हासिल की है, लेकिन यह कामयाबी उसे अपने अकेले के बूते नहीं बल्कि दो क्षेत्रीय दलों के सहयोग से मिली है। यानी वहां भी वह बहुमत आंकडे को नहीं छू पाई है लेकिन उसका गठबंधन जरुर दो तिहाई बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब रहा है। बंगाल और तमिलनाडु की तरह ही केंद्र शासित राज्य पुडुचेरी में भी कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव के मुकाबले अपने प्रदर्शन में काफी सुधार किया और वह अपने सहयोगी द्रमुक के साथ सरकार बनाने में कामयाब रही। यहां भी भाजपा को अपना खाता खोलने में नाकामी ही हाथ लगी।

दूसरा पैमाना इन पांच राज्यों कुल 814 सीटों में से विभिन्न दलों को मिली सीटों को माना जा सकता है। इस पैमाने पर सबसे बडी पार्टी तृणमूल कांग्रेस रही है जिसे 211 सीटें हासिल हुई हैं। दूसरे नंबर पर अन्ना द्रमुक रही है जिसे 138 सीटें मिली हैं। तीसरे, चौथे और पांचवें क्रम पर क्रमश: कांग्रेस (115 सीटें), वाम मोर्चा (109 सीटें) और द्रमुक (91 सीटें) रहा है। जिस भाजपा को इन चुनावों का सबसे बडा विजेता बताया जा रहा है, उसे महज 64 सीटें हासिल हुई हैं।

तीसरा पैमाना इन दलों को मिले वोटों को माना जा सकता है। इस पैमाने पर भी कांग्रेस समेत दूसरी पार्टियों के मुकाबले भाजपा काफी पीछे है। सर्वाधिक करीब 2.45 करोड वोट तृणमूल कांग्रेस को मिले हैं। दूसरे नंबर पर कांग्रेस रही है जिसे लगभग 1.97 करोड वोट हासिल हुए हैं। करीब 1.77 करोड वोट लेकर अन्ना द्रमुक तीसरे स्थान पर है, जबकि लगभग 1.39 करोड वोटों के साथ भाजपा चौथे पायदान पर है। द्रमुक लगभग 1.37 करोड वोट पाकर भाजपा से थोडा ही पीछे है जबकि वाम मोर्चा को 1.28 करोड लोगों ने वोट दिए हैं।

एब इन तीनों पैमानों के मद्देनजर हिन्दी अखबारों और न्यूज चैनलों में चुनावी नतीजों की खबरों के प्रस्तुतिकरण को देखें तो बडी सहजता से समझा जा सकता है कि हमारा मुख्यधारा का मीडिया सत्ता की वंदना करने में किस कदर दीवाना हो गया है। हिन्दी के तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों ने जिस तरह के शीर्षकों के साथ खबरें परोसी हैं उससे उनकी पक्षधरता साफ दिखती है। हिंदी के तमाम खबरिया चैनलों ने भी अपनी 'ब्रेकिंग न्यूज’ के शीर्षक इसी तरह लगाए। ये सभी शीर्षक पहली नजर में यही आभास दे रहे थे मानों पांचों राज्यों में भाजपा ने बहुमत हासिल कर लिया हो।

दरअसल पांचों राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों को अगर समग्रता में देखा जाए तो वे काफी उलझे हुए हैं। किसी भी दृष्टि से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि कोई एक पार्टी पूरी तरह छा गई हो और किसी दूसरी पार्टी को मतदाताओं ने पूरी तरह खारिज कर दिया हो। लेकिन मुख्यधारा का हिंदी मीडिया इस बात को स्वीकार नहीं कर रहा है। इसकी वजह या तो उसकी अज्ञानता है या फिर मक्कारी। तमाम न्यूज चैनलों के एंकर और संवाददाता हांफते-कांकते बडी ढिठाई के साथ यह साबित करने में जुटे रहे कि पूरा देश भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ है। इन सभी चैनलों के तमाम बुलेटिनों में पहली खबर भाजपा की जीत की थी और इसके बाद कांग्रेस के 'सफाए’ का मूर्खता भरा जिक्र और फिर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल की खबर। जबकि इन तीनों राज्यों के चुनाव परिणाम बता रहे थे कि उनके यहां न तो भाजपा की हैसियत में इजाफा हुआ है और न ही कांग्रेस का सफाया। तीनों ही राज्यों के चुनाव नतीजों का साफ संदेश है कि क्षेत्रीय दलों की हैसियत बढी है और ये तथा अन्य क्षेत्रीय दल ही आने वाले समय में भाजपा और कांग्रेस को चुनौती देंगे।

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत के साथ भाजपा के सत्ता में आने के बाद हिन्दी मीडिया के एक बडे तबके ने कहना शुरू कर दिया था कि अब देश में गठबंधन और क्षेत्रीय राजनीति के दिन लद गए हैं। इस प्रचार को कुछ महीनों पहले बिहार के नतीजों ने और अब पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने भी कोरी बकवास करार दिया। सत्ता की चापलूसी में बावला हुआ मीडिया यह तथ्य भी भुला बैठा कि जिस असम की जीत को लेकर भाजपा का नेतृत्व इतरा-इठला रहा है, उस असम में भी भाजपा को अकेले के दम पर नहीं बल्कि दो अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से सत्ता-सुख नसीब हुआ है।

इसे हिंदी के खबरिया चैनलों की बेहयाई ही कहा जा सकता है कि 19 और 20 मई को प्राइम टाइम की तीतर-बटेर वाली बहस इसी बात पर केंद्रित रही कि किस प्रकार भाजपा का पूरे देश में फैलाव हो रहा है तथा शहंशाह मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह की जोडी महानायक बनकर उभरी है। कुछ चैनलों ने तो अमित शाह को 'मैन ऑफ द मैच’ का खिताब भी अता कर दिया। लेकिन सत्ता के दलाल रूपी इन चैनलों ने ममता बनर्जी, जयललिता और केरल के वाम नेताओं को किसी भी विशेषण से नवाजने में पूरी तरह दरिद्रता दिखाई।

यह सही है कि भाजपा ने एक राज्य जीता और कांग्रेस ने दो राज्यों में सत्ता गंवाई, लेकिन इससे यह निष्कर्ष कोई मूर्ख ही निकाल सकता है कि कांग्रेस का अंत हो गया और भाजपा पूरे देश में छा गई। हकीकत यह है कि पांचों राज्यों में कुल मिलाकर कांग्रेस ने भाजपा की तुलना में लगभग दोगुनी सीटें हासिल की हैं और वोट भी भाजपा की तुलना में डेढ गुना से ज्यादा बटोरे हैं। इस आधिकारिक तथ्य के बावजूद पता नहीं किस पैमाने से मीडिया ने भाजपा के उदय और कांग्रेस के अस्त होने का ऐलान कर दिया। पश्चिम बंगाल में तीन और केरल में एक सीट मिलने से भाजपा की जडें गहरी हो गईं और इन दोनों राज्यों में 66 सीटें पाकर भी कांग्रेस ने अपनी जडें खो दी। यह निष्कर्ष निकाल कर हिंदी मीडिया ने अपने अक्ल के अंधे होने का अकाट्य सबूत ही पेश किया है। हिंदी मीडिया का यह रुख उसके बुरे दिन आने की ही गारंटी देता है। (संवाद)